Friday, April 22, 2016

कविता - रात की कहानी

रात की कहानी

सन्नाटे भरी रात में आवाजें गूंजती है
बाहर नहीं, दिमाग में
भूली बिसरी सब यादें
जैसे किसी ने रिकार्ड चला दिया हो
और बंद करना भूल गया

हर लफ्ज ताजे हो जातें
कब, कहां, कैसे, कहा फिर सामने आ जाते
बंद आंखों में चली इस शो रील में
कभी मुस्कुरा और कभी आहे भर दिया करते

चांद आज भी वैसा ही है 
जैसा तब था,
और अब तो आंखें बंद कर
दिख भी रहा है तब कैसा था

सरसराती हवा लोरी सुना रही 
दिगभ्रमित सा मन वहीं पहुंच जाता
आमने सामने सिर्फ ताकते रहते
खामोश जुबान, ना जाने क्या क्या कह जाती

नींद की खुमारी खलल पैदा करती 
करवट पलटते ही नए सिरे से,
बातों की झांकी, फिर शुरू हो जाती
कोफ्त होती, पिछली क्या बात छिडी थी

थोडे से अंतराल में, सब कुछ ताजा हो आता
इतना लंबा फासला, चंद मिनटों में पूरा हो जाता
कुछ नींद, कुछ सपने, कुछ खुमारी
ऐसे ही बीत जाती रात हमारी

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प्रतिमान उनियाल

Friday, April 8, 2016

कविता: चले जा रहा था

कविता: चले जा रहा था

चले जा रहा था वो राह में
कहां, यह तो नहीं मालूम
ना किसी को कहा, ना कभी पूछा
कहां से आ रहा था,
बतलाया था एक बार,
किसी से मिलकर
पर किससे
पता नहीं, पर कोई थी
जिसका अब कोई अता पता नहीं

क्या वो अकेला राह में था
नहीं उसकी परछाई साथ थी
लालटेन की तरह, उसको रास्ता दिखाती
पर रौशनी की जगह अंधेरा फूटता
फर्क तो तब पडता जब मंजिल निर्धारित हो

अब कहां है वो
वहीं,जहां पिछली दफे था
गोल गोल घूम कर वापस आ जाता
उसे यह ना मालूम था
पर देखने वालों को तो पता था

क्या कहता है वो
कुछ नहीं
अपलक एक ओर देखते चलता
जैसे कोई बिंब उसकी आंखों में तैरता
उसे ही निहारता
कभी मुस्कुराता कभी उदास होता
पर कहता कुछ नहीं

कौन है वो
शायद असफल,
अपनी जिंदगी से,
नहीं अपनी किस्मत से
वो जीतना चाहता,
किसको,
उसको, पर वो तो कभी थी नहीं उसकी
कभी जताया भी नहीं
मन में ही रखा

अब क्या,
कुछ नहीं, आओ तमाशा देखे
उसका
क्या पता उसमें हमारा ही अक्स हो
दूसरे की पीडा देखनी अच्छी लगती है
देखो, जाते हुए उसको
मजे करों,
और भूल जाओ

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प्रतिमान उनियाल

Friday, April 1, 2016

कविता: अब न लिखूंगा कुछ मैं

कविता: अब न लिखूंगा कुछ मैं

अब न लिखूंगा कुछ मैं, जिसमें तेरा जिक्र हो
क्यों लिखूं मैं, तेरे बारे में
जबकि लिखने को बहुत कुछ है
न कविता, न कहानी, न जिक्र
बस अब बहुत हुआ

जब देखो हर कविता का प्रारंभ भी तुम अंत भी तुम
जैसे कोई और विचार है ही नहीं मन में
क्यों हर शब्द तुमसे ही शुरू होता है
और रूकता भी तुम पर

कितना ही ककहरा सीखा मैनें
पर सब भूल तुम्हारे अक्षर पर ही अटका हूं
अ में तुम क में भी तुम
मंदिर की स्वरांजली में तुम, फिल्म के गीत में भी तुम
सडक बाजार खलिहान कहीं भी जाऊं
कमबख्त तुम ही तुम दिखती हो

पता नहीं इतना क्यों वहम है मुझको
जैसे लगता है तुम अभी यहीं आ जाओगी
इन पंक्तियों को पढकर फौरन यही बैठ जाओगी
और हंस कर बोलोगी कि मैं गई कहां थी

क्या करूं हर वक्त एसा लगता है कि
मुझे तुम्हारा इंतजार है
पर तुम्हे तो कुछ खबर ही नहीं कि मैं हूं कहां
छोडो अब क्यों याद कर रहा हूं तुम्हें

इसलिए यह फैसला मेरा ठीक है कि
अब न लिखूंगा कुछ मैं जिसमें तेरा जिक्र हो
पर फिर मैं क्या लिखूं
लिखने को या तो तुम हो या कुछ नहीं
तो मैं एसा क्या लिखूं
जिसमें मानव, प्रकृति, समाज, 
दुनिया, भगवान, सब हो पर तुम न हो

क्या शरीर का आत्मा के बगैर वजूद है
क्या प्रकृति का हवा के बगैर वजूद है
तो क्या मेरी लेखनी का तुम्हारे बगैर कुछ वजूद है
इसलिए मैं कोशिश करूंगा कि अब वह लिखूं जिसमें
तेरा जिक्र न हो...
या फिर मैं कुछ न लिखूं

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प्रतिमान उनियाल

Tuesday, March 8, 2016

कविता: आओ हम सब महिला दिवस मनाए

कविता: आओ हम सब महिला दिवस मनाए

आओ हम सब महिला दिवस मनाए
बधाई पहले उनको दे जो हमारी माता, बहन और पत्नी हैं।
उनका योगदान जीवन में सबसे ज्यादा है
या यूं कहे कि हम जीते ही उनके लिए है।
उनके बिना हम अधूरे है, पर हमारे बिना वह भी अधूरे है।

साल में एक बार क्यों, बाकि 364 दिन क्या वह लुप्त होती है
जिनसे जीवन की डोर बंधी हो वह तो हर पल, हर क्षण साथ होती है।
हां मैं मां, बहन व पत्नी की ही बात कर रहा हूं
हर नारी तो पूज्यनीय ही होती है,
पर क्या आपने जीवन की डोर की पूजा की है
एक पल ही सही क्या मां, बहन और पत्नी से दो घडी बैठ कर बात की है
सुबह घर से दफ्तर, फिर रात में दफ्तर से घर
सब इसी इंतजार में रहते की वो हमारी सुने, हम उनकी।

बधाई उन सभी महिलाओं को दे जिनका हमारे जीवन में प्रभाव रहा
बधाई उस डाक्टर और नर्स को जिसने मुझे इस दुनिया में पहला कदम रखवाया
उन सभी शिक्षिकाओं को जिन्होनें मुझे लिखना पढ़ना सिखाया
उन सभी स्कूल और कॉलेज की दोस्तों का जिन्होने सुख दुख बांटना सिखाया
उन सभी नारियों को भी बधाई जिन्होने गाहे बिगाहे मुझे दुनियादारी सिखाई

आओ अभिनंदन करें विश्व की सभी नारियों का 
जिनसे पूरी दुनिया आबाद
पर एक पल के लिए सोचे,
अगर नारी जीवन की रचयिता, तो पुरूष भी जनक है
मां के साथ पिता, बहन के साथ उसका भाई है
पत्नी तभी सौभाग्यवती, जब सुहाग उसके साथ है
कुछ भी कहें पुरूषों का भी बराबर का साथ है
जैसे बिन पाट, तराजू पूरा नहीं
बिन ताला, चाभी का कोई काम नहीं
बिन पहिया, गाडी बेकार है
वैसे ही पुरूष बिन, नारी भी अधूरी है

आओ अब से हर रोज महिला दिवस मनाए
इस बहाने हम उनको और वह हमें मान तो देंगें
हम उनकी और वह हमारी तो सुनेंगे
उनको भी तो पता चलें कि 
कितनी जरूरी है वह हमारे लिए और हम उनके लिए
आओ हम सब अब रोज महिला दिवस मनाए
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- प्रतिमान उनियाल




Tuesday, March 1, 2016

कविता: हम सब मानो यंत्र है

कविता: हम सब मानो यंत्र है

हम सब मानो यंत्र है,
इस महानगरीय जीवन में, हम सब मानो यंत्र है
न कोई तंत्र, न कोई मंत्र, फिर भी हम सब मानो यंत्र है

जिसने जो कहा वह किया,
मना किसी को न किया,
जी का कभी अपना न किया,
बस काम अपना पूरा करते है,
जैसे हम सब मानो यंत्र है

सुबह से लेकर शाम तक, अब न होती थकान
रात से लेकर सुबह तक, अब न सो पाता
जीवन का सारा ढर्रा ही एसा हुआ,
हम सब मानो यंत्र है

रिश्तेदार न हमको पहचाने, दोस्त न हमको जाने
मतलब पडने पर ही पहचाने, नहीं तो रहे बिल्कुल अंजाने
न कोई रिश्ता, न कोई यारी, न कोई पडोसी, न दुनियादारी
हम भूल गये इन सबको, अब तो हुआ व्यवहार भी यांत्रिक
ऐसे जैसे हम सब मानो यंत्र है, हम सब मानो यंत्र है

दुनिया छोटी हुई जरूर, पर दिल की दूरी बढी भरपूर
पहले इस बडी दुनिया में, हम भी थे बहुत बडे
सबको अपना, पराया किसी को न माने थ
अब इस छोटी सी दुनिया में, हम हुए बहुत छोटे
सबको अपना दुश्मन माने, अच्छा किसी को न माने
हमारा व्यवहार ऐसे, जैसे हम सब हम सब मानो यंत्र है
हम सब हम सब मानो यंत्र है

छोटी छोटी बात में अब चाकू तमंचा निकलते
न कोई माने बात तो फट उसको मारते
न कोई दर्द, न शिकन, न मानवता का अहसास
जब कोई मरता, तो सोचते चलो बला टली और फिर करते अट्ठास
इस भयंकर वर्तमान में हम सब मानो यंत्र है
मानों ही क्यों हम सब मानो यंत्र है,
हम सब मानो यंत्र है

हम बदल रहे है यंत्र में,
अब तो सिर्फ शरीर ही मांस का बचा
दिलो दिमाग तो न जाने कब बन गये धातु के
लोग कहते कि दुनिया खतरे में,
पर मानवता ही असल खतरे में

कोई नहीं बदल सकता, इस यांत्रिक दुनिया को
सर्वनाश होना निश्चित है,
उस महानाश के बाद फिर एक नई दुनिया आयेगी,
फिर नया मानव उदय होगा,
पर तब तक तो हम यंत्र है, मानो क्यों, हम सचमुच यंत्र है
हम सब मानो यंत्र है हम सब मानो यंत्र है

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- प्रतिमान उनियाल 




कविता: मैने एक खेल देखा

कविता: मैने एक खेल देखा

मैनें एक खेल देखा,
बंदर भालू का नहीं,
पिघलती सडक पर गलती एक जिंदगी का.
कलंदर था वो, पर अपनी मर्जी का नहीं,
मालिक भेजता दूर, हर रोज बहुत दूर,
आगे बंदर, पीछे भालू, बीच में साइकल चलाता जमूरा.
जानवर तो जानवर रहता, 
पर जमूरा कब जानवर बना नहीं जान पाया

याद इतना पडता कि माई बाप छोड गए थे अकेला,
उस अजनबी सडक पर जो सिर्फ दूर जाती थी,
आती थी तो सिर्फ मजबूरी
आई भी थी, वो एक इंसान की शक्ल लेकर,
दो रोटी सामने फैंक, उसको खरीद जो लिया था।
तब से वो और उसका बंदर भालू, रोज दिखाते एक तमाशा
कभी जानवर आग पर कूदता, कभी जमूरा भूख की आग से झुलसता
ताली खूब बजती उसके हर खेल, पर
यह उसको मुक्ति दिलाये, काफी न थी।

सुबह शुरू होती उसी झोंपडी से, जहां रात उसकी खत्म होती,
अब का पेट तो जैसे तैसे भरा, शाम को क्या होगा मालिक को पता
रोटी वह खा के चलता, जो उसने रात के टिक्कडो से बचाई,
उस रोटी का भी एक हिस्सा बंदर खाता तो दूसरा भालू

आज भी अल सुबह वो निकला, 
बच्चों और बडो को दिखाने तमाशा
घंटे भर तक डुगडुगी हिलाई, 
हाथ थके, पांव सुजे पर कोई न आया
थक हार दूसरी सडक पर निकल चला
सुबह से शाम हो गई पर कोई नहीं आया।

एक जगह कुछ बच्चों को देख, 
ठिठका, खोली रस्सी, शुरू किया नाच
बच्चों को देख कुछ बडे भी आए, 
देखते देखते भीड भर आई।
खूब तमाशा देखा जी भर देखा, 
अब पैसों की बारी आई
छंटने लगी भीड, हटने लगे लोग
कुछ ने पैसे दिये, दस बीस या पचास
एक बच्चे ने रूपया दिये पांच, 
कहा कि यह खेल था आईक्रीम से अच्छा.

आखिर खत्म हुआ तमाशा, 
पैसे गिने, निकले केवल 20 रूपया
पूरे दिन की हवाखोरी,
हाथ आया सिर्फ 20 रूपया
उसमें भी 10 मालिक का और 10 उसका,
उसमें रोटी उसको खानी और खिलानी बंदर, भालू को
इसी दस दस से उसकी जिंदगी चलती
आज भी उसका खेल हुआ, कल भी होगा
सच में, मैने उसका खेल देखा
क्या आपने देखा...?

कविता: मैं पागल हूं

कविता:  मैं पागल हूं

मैं पागल हूं, बिल्कुल पागल हूं,
बाहर से नजर न आउं, पर अंदर से हूं।
मैं झूठ बोलता नहीं, दुनिया ने सच बोलना छुडवा दिया
मैं सीमित अपने में, पर दुनिया ने गलत अंदाज में इसे लिया
मैं किसी को 'न' नहीं कहता, दुनिया ने सोचने का मौका ना दिया,
धर्म कर्म से प्रेम करने वाला, दुनिया ने मुझे धर्मान्ध ही कह डाला
किसी का बुरा सोचता नहीं, दुनिया ने मुझे ही बुरा बतला डाला।
अपनी ही सीमा रेखा के अंदर अपनी ही दुनिया से उस दुनिया को देखने को
दुनिया ने पागलपन कह दिया।

फिर तो मैं बिल्कुल पागल हूं, सच में पागल हूं
मुझे शोक में दुखी होना, उल्लास में खुश होना नहीं आता, 
मुझे दूसरे का ग़म अपना, और अपना गम सिफ़‍र् अपना ही लगता,
मुझे भीड नहीं एकांत पसंद सुबह नहीं शाम पसंद 
मुझे शोर नहीं सन्नाटा पसंद पर्वत नहीं खाईयां पसंद
मुझे दोस्त नहीं तन्हाई पसंद वो सब पसंद जो दूसरो को नहीं पसंद 
शायद इसलिये कि
मैं पागल हूं, बिल्कुल पागल हूं

मैंने एक एसी दुनिया संजोई 
सब काम अपनी इच्छा से हो, दूसरो के मोहताज न हो
सब लोग सच्चाई के कंटीले पथ पर चले, बेइमानी के गुदगुदे सफर पर नहीं
सब अपनी दिशा खुद चुने, कोई दूसरा न हम पर थोपे
सब अपना व्यक्तित्व अपने पास रखे, दूसरो के व्यक्तित्व पर गिरवी न रखे
यह सब मैं सोच तो रहा हूं, पर क्या यह संभव हो पाएगा
या फिर पागलपन की एक कविता और समझ, इसे भी फाड़ के फेंक दिया जायेपगा।

पागलों की बात पर पागल ही ध्यान देते है
अपना समय बर्बाद न करो, इस कविता को अभी फाड दो
इसमें नारी चित्रण नहीं, न इसमें गरीबी की यंत्रणा है,
अगर कुछ है, तो पागलपन की सनक है

क्योंकि

मैं पागल हूं, बिल्कुल पागल हूं
अगर आप इसमें सहमत नहीं
तो आप भी पागल है, बिल्कुल पागल है।

- प्रतिमान उनियाल

Friday, February 26, 2016

कविता: गोया, मैं एक तमाशबीन हूं

कविता: गोया, मैं एक तमाशबीन हूं

गोया, मैं एक तमाशबीन हूं
क्योंकि इसका न कोई चेहरा सिर्फ एक अक्स
जो अपनी उपस्थिति दिखाता
वह न देखता, ना सुनता, बस भाव में बह जाता
न कुछ बोल पाता, जुबान जो न है हकीकत बताने को
बस, वही रहा कुछ पल, फिर ऐसे चला गया जैसे कुछ हुआ ही न हो।

नट कौन सा तमाशबीन के पास जाता
तफसील से टोपी आगे रख कातर निगाहों से देखता
उसको भी पता हर तमाशबीन की औकात का
जाता सिर्फ उसके पास जो उसको चंद सिक्के दे सकें

मैं कैसा तमाशबीन, मुझसे ना पूछो
पूछना है तो उस नट से पूछो
जो जिंदगी बन नए नए करतब दिखा रहा
मुझे तो बस अक्स के साथ खड़े रहना है
अपनी मौजूदगी का अहसास दिलाना है
खिलंदड़ा तो वह है, जो बिना रूके बिना थके
मुझे तमाशा दिखा, मेरा समय काट रहा है।

 पिछला तमाशा क्या था, कौन सा खेल था, याद नहीं
क्यों होगा याद जब समझा ही नहीं था उसको
बुत बना तब भी, ऐसा ही खडा था, ऐसा ही खडा अब
बस इतना याद, कुछ कुछ ऐसा ही था वह
कंटीली तारों में नंगे पैर चलना,
बंदर को आग के गोले पर नचाना
पर ऐसा लगा कि कंटीली तार पर तो मैं ही चला
और आग के गोले पर मैं ही नाचा था

हर नए तमाशे के साथ यही दिक्कत है
नया सिर्फ नट होता है, खेल तो वही है
चाहे वह कल का तमाशा या आज का तमाशा
भविष्य मैंने देखा नहीं पर ऐसा ही होगा कि
गोया मैं एक तमाशबीन हूं

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 -  प्रतिमान उनियाल
 

कविता: ढूंढता गया मैं

कविता: ढूंढता गया मैं

ढूंढता गया मैं तुझे मिली तो सिर्फ परछाई
जो सिर्फ एहसास की तरह पर हकीकत से दूर
ना हवा ना रोशनी सिर्फ एक अक्स
एक कमी को पूरा करता हुआ

सामने बिल्कुल सामने पर दिखती नहीं
करीब बहुत करीब पर आवाज सुनाई नहीं देती
अहसास सिर्फ एक अहसास
जिसका सिर्फ कल्पना में वजूद

किस से बात करे किस ओर बात करे
भला अनुभूति भी किसी बात का जवाब देती है
सिवाए अपनी प्रतिध्वनी के कुछ और सुनना मुमकिन नहीं
तो फिर किसी प्रतिउत्तर की उम्मीद बेमानी है

अहसास ही हमसाया की तरह चिपक गया,
बिना वजूद के ही खांचा खींच दिया
कुछ ना होते हुए भी एक संसार साकार कर दिया,
जिसमें कुछ नहीं सिर्फ जज्बात ही है

अब ऐसे ही रहना,
उसी अहसास में जीना है
न दिखने से साया ही अच्छा है
ध्वनिहीनता से अनुभूति ही भली
कम से कम जीने की आशा तो हुई
तेरे होने की उम्मीद से जान तो वापस आई

- प्रतिमान उनियाल

कविता: तलाश

कविता:  तलाश

तुझे कहां कहां न तलाशा मैनें,
एक तमाशबीन बन के रह गया
जहां भी जाता, भीड का हिस्सा बन
कभी इधर मुड जाता, कभी उधर

तस्वीर एक दिल में समाई हुई है,
उसी को जग में दिखलाता फिरता
हर शक्ल को तस्वीर में बदलता
पर फिर भी वो अक्स न उभर पाता

तेरे एक दिदार की चाहत दिल में समेटे हुए
बन बैठा भिखारी अब
न जाने कितनो से कहा मैने
कि उसका पता ही भीख में देदो मुझको

एक खत बहुत समय से पास है मेरे
पर हर डाकिए ने भरमाया मुझको
कि वो तो अब लौट कर आएगी
अपने हाथ और लब से खत का जवाब देगी

दिल के हर कोने से आवाज आती है
कि अब जितना भी ढूंढों न मिल पाएगी
वो तो एक छलावा भर थी
जो आई थी जिंदगी में वापस जाने

हर बिछडे आशिक का यही हाल होता है
मौहब्बत का उसे यही सिला मिलता है
बस गम ही पास रह जाता है
बाकी तो सब वह समेटे ले जाती है

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प्रतिमान उनियाल

कविता: बस उस एक पल

कविता:  बस उस एक पल

बस उस एक पल में जीने दो, उस भ्रम में मुझको रहने दो
राहगीर वही, मंजिल वहीं, राह पुरानी लेने दो
युग बदला, दृश्य बदला, सपना वहीं रहने दो
संबंधों की परिभाषा में मत उलझाओं, बात पुरानी रहने दो

छवि मेरे मन में तुम्हारी, दिल में उसको रहने दो
सुबह तुम्हारी बात से, शाम तुम्हारी याद से, अब वक्त को मत रूकने दो
सपनों में ही सही, तुम आती तो हो, उस नींद में मुझे सोने दो
एसे ही जीवन चलें हर पल, मुझे अपने में रहने दो

कभी सोचा न तुमने, क्या हुआ मेरा, छोडो, मुझे मेरे हाल में रहने दो
जीवन चल रहा है तुम बिन, उसको बस एसे ही चलने दो
गर्म राख की तपिश सरीखी चाहत को दिल में दबे रहने दो
मत आना वापस मेरे पास, मुझे अपने पास आने दो

क्या हुआ जो यहां तुम न हो, याद तुम्हारी रहने दो
मैं यहां, तुम वहां, बस उस एक पल में जीने दो

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- प्रतिमान उनियाल

कविता: अरे...तुम्हे भी...

कविता:
अरे...तुम्हे भी...

अब तुम्हे क्या हुआ जो इस जंजाल में पड गए
क्या मन की शांति काफी न थी जो इस आफत में पड गए
कभी सोचा भी था कि इसके परिणाम क्या होंगे
दिन का चैन और रात की नींद हराम होंगे

अरे...तुम्हे भी...इश्क हो गया
क्या पता भी है तुम्हे, कि इश्क क्या होता है
भोग विलास से परे यह कैसी दुनिया है
जहां पग पग पर कांटे और चांटे मिलते है
जहां हम अपने और अपनो से ही विद्रोह कर बैठते है

क्या जरूरत थी कि कोई तुम्हे देखकर खुश हो
और इस खुशफहमी को तुम्हे भेंट कर दे
कहीं तुम्हारे भोलेपन को इकरार समझ इजहारे मौहब्बत कर डाली
अब यह तुम को समझना है कि कितनी कठिन डगर तुमने है चुन डाली

कहीं ऐसा तो नहीं कि दोस्ती को ही मोहब्बत मान बैठे
दो दिन के मेल मिलाप को जीवन भर का बंधन मान बैठे
आंखे खुलने के दुस्वप्न को समझ आंखों में काला पट्टा ही बांध दिया
चंद लम्हो की मुस्कुराहट बेसिर पैर की बातो को ही कहीं तुम इश्क तो न समझ बैठे

है इतनी हिम्मत की मां बाप का सामना कर सको
भाई के दिल की पीडा को छोडो भाभी के तानों का पी सको
पडोसियों की मनोहर कहानियों के पात्र बन पूरे जग में ठिठोली करा सको
है इतनी हिम्मत तो ए दोस्त तुझे सलाम तेरे प्यार को सलाम
पर डरता हूं एक बात से, क्या उसमें भी है तेरे जितना जज्बा

इस बात को छोडो कि कितना तुम उसको और वह तुमको जानता है 
पर इस बात को निश्चित करना कि तुम उसको और वह तुमको मानता है
एक कदम यह सोच के आगे बढाना कि वापस न जा पाओगे
अगर उसको पा लिया तो पूरा जग खो बैठोगे

माना कि पूरी दुनिया मोहब्बत के रोग में घिरती है 
फिर अपना दिल और दिमाग को खराब कर देती है
कुछ खुशकिस्मत होते है कि उन्हे अपना जहां मिल जाता है
बाकियों को तो जीवनभर की यातना ही मिलती है

अब बात तुम भर निर्भर है 
फैसला सिर्फ तुम को करना है
हमें तो बस चेताना था सो किया
इस निंद्रा से तुमको ही जागना है।
पर बाद में यह न कहना कि बताया न था
कि इश्क में मिलता कुछ नहीं बस रूसवाई है
दिल के टूटने पर जो रंज ओ गम का खजाना मिलता है
वह जीवन भर साथ रहता है
जो छुपाए न छुपता व मिटाए न मिटता है।

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प्रतिमान उनियाल

कविता: शून्य

कविता: शून्य

एक रहस्यमयी शून्य से ढ़का पूरा आवरण,
तोडना तो पडेगा,
वरना,
वह घुट के रह जाएगा,
शायद बोल ही काम कर दे,
अन्य माध्यम की जरूरत ही न पडे,
पर कुछ करना पडेगा
बोलो, करो
कैसे भी, कहीं भी, कुछ भी
पर बोलो।

हमने तो कोशिश फिर भी की
पर दूसरी तरफ से कुछ न हुआ 
इसलिए शून्य घटने की बजाये बढ़ रहा, 
रोको इसे,
अब यह तुम्हारा काम है,
हमें जो करना था, कर रहे है, कर चुके है
तुम भी करो
कैसे भी, कहीं भी, कुछ भी
पर करो।

प्रतीक्षा का फैलाव शून्य को बढ़ाता है,
अब तो इतने माध्यम है,
कोई तो करो इस्तेमाल, 
शून्य को खत्म करना है
अंजाम से भय नहीं,
कम से कम यंू एक त्रिशंकु तो बचेगा
जो अधर में लटका शून्य के छटने का इंतजार कर रहा है।

शून्य को हटाओ,
त्रिशंकु अपने आप बचेगा,
शंका का समाधान भी होगा।
हम तो हार चुके है,
अब जो करना है
बस तुम्हे करना है,
कैसे भी, कुछ भी, कहीं भी
सिर्फ तुम्हे ही करना है।

- प्रतिमान उनियाल

कहानी : कबीले का आदमी

कबीले का आदमी

सब उसे कबीले का आदमी कहते थे। वैसे तो वह औरत थी पर वह कबीले की मुखिया थी, इसलिए वह कबीले का आदमी था। औरत, हां शरीर की बनावट व आवाज से औरत थी पर पहनावा बातचीत का तरीका हुकुम चलाना; उपर से तन कर चलना उसे मर्द बनाता था। गुस्सा तो जैसे नाक पर चढा रहता था, क्या मजाल की कबीले का कोई भी सदस्य उसकी बात को टाल दे। सब उसके गुलाम थे कर भी क्या सकते था कबीला छोड कर कहां जाते। कुछ एक उददंड सदस्यों ने दूसरे कबीलो की सदस्यता के लिए प्रार्थना पत्र भी भेजा था पर इस मुखिया की कुख्याती हर कबीले वालों को पता थी इसलिए सिवाय सहानुभूति के कोई दूसरा जवाब नहीं आता। कुख्याती भी ऐसी की हर औरत को सुनने में शर्म आए तथा मर्द चटखारे मार कर सुने। हर सरकारी मुलाजिम मजिस्ट्रेट पुलिस या यूं कहें कि हर औहदे वाले से उसके गंदे संबंध थे। रात रात भर उनके घरों में पडे रहना भर दुपहरी में घोडे में सवार होकर नए संपर्क की खोज में कबीले से बाहर रहना। कबीले में आने वाले हर माल में उसकी रकम थी। रकम नहीं तो काम नहीं।

कबीले का काम सुचारू रूप से होना तो दूर अब गुजारे लायक चलना भी दूभर हो रहा था। चूंकि सरकार का हाथ उसके सिर पर था तो वह अपनी हरकते जारी करने में स्वछंद थी। क्या करे कैसे करें हर कोई सोचता कभी किसी दिन किसी को जोश आ जाता कि मार दो उसको पर थोडी देर में जोश ठंडा क्योंकि अकेला चना भाड नहीं फोड सकता।

फिर एक दिन ऐसा आया कि सब का सब्र का बांध टूट गया। क्या बच्चा क्या बूढा सब ने जो मिला लाठी बल्लम डंडा उठा के पहुंचे मुखिया के पास। मुखिया का दिमाग ठनका विद्रोह हो गया। मुखिया ने सरकार से विद्रोहियों की शिकायत की पर विद्रोहियों की संख्या देखकर सरकार ने वोट बैंक बचाने की खातिर मुखिया को ही संयम से रहने की हिदायत देकर विद्रोह किसी तरह शांत कराया। सौ चूहे खाकर बिल्ली हज तो कर नहीं सकती चुनांचे कुछ दिन संयम का परिचय दिखाकर धीरे धीरे पुराने ढररे में लौटने लगी। तरीका बदल दिया। किसी दिन एक सदस्य को खास कृपापात्र बनाकर दूसरो पर जुल्म करती तो दूसरे दिन उसी जुल्मी को अपना कृपा पात्र बनाकर पहले वाले पर जुल्म करती। तरकीब काम आ रही थी पर कबीले वालों में कुठंाए बढ रही थी। फिर वहीं ढाक के तीन पात।

एक दिन किसी का दिमाग चला एक वीरान जगह में डरपोक सदस्यों को छोड कर सभी कबीले वालो की बैठक कराई। तय हुआ कि सब सदस्य एक साथ कबीले की सदस्यता से इस्तीफा दे तथा दूर के कबीले में चले जाएं। युक्ति काम आई डरपोक सदस्यों को छोडकर सब ने इस्तीफा देकर कबीला खाली कर दिया। अकेली मुखिया कुछ डरपोको के साथ क्या करती कबीला ठप्प ‍- कुछ दिन के लिए। सरकार ने देखा कि कबीले के बगैर उनके वोट बैंक पर असर पड रहा है, फिर क्या था कबीले में नए सदस्यों की भर्ती हो गई। मुखिया आज भी कबीले का आदमी है, वहीं जुल्म वहीं गुलामी। उन निर्भीक लोगों का क्या हुआ जिन्होने कबीला छोड दिया था। सुना है कि दूसरे कबीले का मुखिया भी इस कबीले के आदमी से उन्नीस नहीं है।

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- प्रतिमान उनियाल

Tuesday, February 9, 2016

कहानी: इंतजार

कहानी :
इंतजार

अरे विंदु कितना बजा है, आदत के अनुसार दद्दा थोडी थोडी देर में विंदु से पूछते। क्या करेगें जानकर अभी शाम हो रही है, प्लीज लेटे रहो। 

लेटे रहो, यह शब्द दद्दा पिछले एक साल से सुन रहे है। आखिर कोई इस 20x15 के अस्पताल के कमरे के 8x6 के पलंग पर कोई कब तक लेटा रह सकता है। अस्पताल कितनी भी सुविधाओं से लेस क्यों न हो, कितना भी अच्छा इलाज क्यों न चल रहा हो, अस्पताल तो अस्पताल ही होता है। दिन में एक बार दद्दा विंदु से जरूर गिडगिडाते कि अब तो घर ले चल मुझे। पर घर जाने के लायक ही होते तो यहां क्यों होते। कार्किनोमा, मेलिगनेंसी, कैंसर यह शब्द हथौडे की तरह पडते है जब भी कोई डॉक्टर या कोई आगंतुक कहता।

आज भी याद है, क्या सुबह थीतारीख 2 अक्टूबर, याद इसलिए भी है क्योंकि महात्मा गांधी जो कि दद्दा के पूज्य है उनकी जयंती। सुबह से ही नहा धोकर चहक रहे थे कि अचानक चक्कर आया कुछ धुंधलके की शिकायत की, फिर उल्टी सी लगी जिसमें हल्का खून सा आया। फौरन अंजन, उनका बेटा उनको पास के अस्पताल में ले आया। टेस्ट पर टेस्ट, पता लगा कि फेफडों का कैंसर है, एडवांस स्टेज, एडमिट होना पडेगा।

वो तब का दिन और अब का दिन, एक ही कमरा एक ही दिवारें अस्पताल की। हां कुछ बदलता तो पडोस के पलंग का मरीज। जनरल वार्ड असहनीय था, सिंगल रूम बहुत महंगा था तो फिर डबल शेयरिंग रूम लिया।

वैसे तो हर मरीज अपने में खुद एक कहानी होता है और फिर पडे पडे दद्दा करते भी क्या। जो भी नया मरीज होता उससे और उसके तीमारदारों से बातचीत।

अभी पिछले हफ्ते डैंगू की एक मरीज आई थी राधा। उसके साथ उसकी भाभी नयनतारा जो कि बेलगाम बोलती। एक घंटे में ही बता दिया कि राधा को पिछले साल भी डैंगू हुआ था, उसका पति कहीं बाहर काम करता है, उसका बेटा एक बडे नामचीन स्कूल में पढता है। दद्दा अपने आदत से सलाह देने से बाज नहीं आते। अरे बेटा इसको पपीते के पत्तों का सत्त दो, बकरी का दूध पिलाओ, नारियल पानी पिलाओ देखना शाम तक ही प्लेटलेट बढ जाएगें।

प्लेटलेट, अरे दद्दा कोई कम थोडे ही है, गुरू है गुरू। ठीक है पढाई उतनी जितना लिख पढ सके पर ज्ञान इतना कि जमाने को पीछे छोड दे। सिर्फ लिखने पढने से ही समझ आती या ज्ञान आता तो सारे के सारे एम ए पास आज विलयती गाडियों में बंग्ले में रह रहे होते। कभी किसी ने अंबानी, टाटा, बिरला से पूछा कि भाई कितनी जमात पढे हो। उनको देखो और अपने को देखो। विंदु को इसी बात से गुस्सा आता। ठीक है कि इंजीनियर बनकर एमबीए भी कर लिया, पर दद्दा को यह थोडे ही मालूम कि देश में मंदी आ रही है। बहुतो की नौकरी गई।उसकी भी चली गई। पर कोशिश तो कर रहा है। और दद्दा को देखो कह रहे है कि कि एक रेस्टोरेंट ही खोल देता तो करोडपति हो जाता। रेस्टोरेंट से करोडपति कैसे। दद्दा कहते मुझे क्या मालूम पर लवली भी तो हलवाई था, रसगुल्ले बेचता था पर आज एक बडा कॉलेज खोलकर डिग्री बेच रहा है। बता करोडपति नहीं है क्या वो। कमअक्ल कम से कम एक चाय का ठेला ही खोल दे या पान की दुकान। अगर पूछों कि क्या वो लवली उनकी जान पहचान का है और उन्हीं के यहां वह रसगुल्ले खाने जाते तो फट दद्दा कहते हां हां वो हल्दीराम, बीकानेरवाल, नथ्थू सब मेरे सगे वाले है। अरे मनहूस, उन लोगों ने भी एक दुकान से शुरूवात की थी और आज देख वो कहां और तू, तू तो कहीं नहीं है क्या होगा भी। नौकरी करना चाहता है, बस नौकर ही बने रहना। अपना काम अपना होता है। किसी की चाकरी तो नहीं करनी पडती। आज के लडको को कौन समझाए। अरे ये मुए कंपनी वाले काम निकल जाने पर मख्खी की तरह बाहर निकाल देते है। अरे अपना काम होगा तो कौन निकालेगा। अरे उस काने को देख, पजामा संभालना नहीं आता था। पर आज टेलर मास्टर है। शहर में कमीज पतलून की अपनी दुकान है। 

 दद्दा सबके दद्दा है। पूरा इलाका उनको दद्दा के नाम से जानता है। पीढियों की पीढियां गुजर गई पर दद्दा वहीं के वहीं। 100 से एक साल कम। विंदु कहता है कि दद्दा अगले साल आपकी सेंचुरी बनाएगें तो दद्दा तपाक से कहते अरे सेंचुरी तो कपिल देव ने मारी थी 1983 के वल्‍​र्ड कप में। क्रिकेट और पोलो के दिवाने। क्रिकेट के तो चलो सभी दिवाने है पर पोलो। अरे हुआ यह था कि उनका एक दोस्त लखन सिंह सेना में था। लखन सिंह लंबा चौडा 7 फुटा पोलो खेलने का शौकीन। जब भी उसका मैच होता वो दद्दा को लेकर जाता। खुले मैदान में चार चार घुडसवारों की दो टीम। हॉकी जैसा डंडा उठाए बॉल को दूसरे छोर के गोल में डालना होता। दद्दा ने भी पोलो के कुछ शब्द जैसे चक्कर, हैंडीकैप, स्ट्राईक जैसे शब्द सीख लिए। लखन सिंह को गए भी 30-35 साल हो गए। पर दद्दा हर पोलो मैच टीवी पर ऐसे देखते जैसे हर घोडे पर लखन सिंह ही बैठा हो। मोतिया भरी आंखों से तो हर घुडसवार लखन सिंह ही दिखेगा।

उश यह क्या कर रहे हो भाई....जरा आराम से... दद्दा की आवाज सुनकर विंदु की तन्मयता टूटी। डॉक्टर कोई इंजेक्शन लगा रहा था। हर रोज इंजेक्शन, ब्लड टेस्ट.... शुगर भी है, बीपी भी है, किडनी भी सही काम नहीं कर रही। दिल भी बढा हुआ है। यह बात तो है कि दद्दा का दिल बहुत बडा है। पूरे मोहल्ले में बडे दिलवाले दद्दा के नाम से प्रसिद्ध है। कोई भी समय हो रात या दिन काई भी जानने वाला आए पडोसी रिश्तेदार, बगैर खिलाए तो भेजना ही नहीं। अगर कोई परेशानी पैसौ की या किसी चीज की तो फौरन मदद। पैसे तो दद्दा के पास हमेशा ही रहे है। आज के समय के हिसाब से भी अच्छी खासी पैंशन मिलती है उन्हे। पहले गाय भैंस बकरी पालते थे तो कई बार कोई जानने वाला आता कि उनके मवेशी मर गए मदद चाहिए तो दद्दा अपने ही मवेशियों में से एक उसको पकडा देते। अब कौन समझाए कि भैंस लाख से कम नहीं और बकरी 20‍र्25 हजार से कम नहीं आती। अब तो खैर गांव से शहर में है तो मवेशी कैसे होगें। अभी है गांव में, पर दूसरो के भरोसे। दद्दा अभी भी सोचते कौन उनकी गौरा या काली को सान भूसी खिलाता होगा।

टिक टिक टिक रात का एक बज रहा है। अस्पताल के कमरे की चारदीवारी में क्या एक और क्या पांच, क्या सुबह क्या रात। दद्दा वक्त के हमेशा पाबंद रहे है। सुबह पांच बजे उठना, निवृत होकर दो घंटे पूजा करना। सात बजे नाश्ता जिसमें चार रोटी लहसुन प्याज की चटनी के साथ और गुड। साथ में एक बडा गिलास मलाई से भरा फीका दूध।जब भी विंदु दद्दा के पास गांव आता तो दद्दा उसे यही नाश्ता देते तो विंदु नाक भौं सिकोडकर बोलता की रोटी सूखी है, चटनी से बास आ रही है, दूध में मलाई है। धत्त तेरे की, कैसा बच्चा है रे जो मलाई नहीं खा सकता। चटनी तो अभी पीसी है, हां रोटी कल रात की है पर बासी थोडे ही है। अरे हम तो यही खा कर बडे हुए। वो तो उम्र हो गई इसलिए दो गिलास दूध ही दिन में पचा पाते है नहीं तो पतीला कब साफ कर जाते पता ही नहीं चलता। कुंए से पानी खींचना और वहीं नहाना और धोना। विंदु हमेशा नाक सिकोडता, कहता पता नहीं बाथरूम में क्यों नहीं नहाते।वो तो जब तक बाथरूम में गर्म पानी और गोदरेज का साबुन ना मिले, नहा ही नहीं सकता। दद्दा को देखो दो बाल्टी पानी की उडेली कहा हर हर गंगे और हो गया स्नान। अरे ऐसे कैसे कोई नहा सकता है। दद्दा के खेत के खेत है, सुबह एक चक्कर पूरा लगाते। चक्कर क्या लगाते कि साथ चलने वाले अच्छो अच्छों की सांसे फूल जाती। विंदु उत्साह में तो आ जाता पर आधा किलोमीटर चलने के बाद ही वहीं बैठ जाता। तब दद्दा कहते वापस जा नालायक जो जरा से चल नहीं सकता वो परिवार को क्या चलाएगा।

आज दद्दा चलना तो दूर कमरे से बाहर ही नहीं जा सकते। अस्पताल का कमरा। सांस तो फूलने लगा था। खांसी भी कुछ समय से थी। पर दद्दा ने कभी ध्यान नहीं दिया। सुबह तुलसी का पत्ता मुंह में रखते, अदरक इलायची चबाते। हल्दी वाला दूध पीते और कहते देखो इससे खांसी भी दूर होगी और चुस्ती भी आएगी। खांसी क्या दूर होती। फेफडे ही धोखा दे गए। दद्दा कहते कि तंबाकू या सुपारी खाना तो दिनचर्या का हिस्सा है। हुक्के की गुडगुड से ही तो मन ताजा होता है। हो गया सब कुछ ताजा। सिर्फ यादें। हुक्का तंबाकू सुपारी तो पता नहीं कहा छुपा दी डॉक्टर के कहने पर।

दद्दा हैपी दिवाली, नर्स ने कमरे में घुसते ही कहा। दद्दा ने कहा दिवाली है आज।दिवाली, दद्दा के लिए खास त्यौहार था। उसकी शुरूवात तो नवरात्रों से हो जाती। पूरे घर में चूना मिटटी पुतवाना। गाय भैंसों के लिए नई घंटिया लाना। छत से कुएं तक झालरे लगाना। दशहरे तक हर रात रामलीला देखने जाना। दशहरे के दिन मैदान में मेला लगता। दिन भर वहीं घूमना, धूल मिटटी के गुबार के बीच हर दूकान में जाना और अगर खाने की दूकान हो तो कुछ न कुछ खाना। नहीं तो दुकानदार यह नहीं कहेगा कि लो दद्दा आए हमारे यहां और कुछ नहीं खाया।समोसे, ब्रेड पकोडे, जलेबी, लडडू, इमरती, बालूशाही, चीनी की बर्फी, न जाने क्या क्या। हां जो नापसंद था वो थी नौटंकी। अरे वो भी कोई देखने की चीज है। पैसे भी दो और नचनियों को देखकर वापस आ जाओं अरे इतने में तो 1 किलो जलेबी और 1 किलो रस गुल्ले आ जाएगें। मीठा तो दद्दा की रग रग में बसा था। तभी तो उन्हे शुगर भी हो गया। अभी पिछले महीने ही उनका शुगर लेवल 200 चल रहा था। अस्पताल में रहते हुए अगर 200 तो गांव में कितना रहता होगा। तभी पिछले दो एक सालों से बार बार दिल घबराना और चक्कर बता रहे थे। पर गांव के झोला झाप डॉक्टर बस यह कह देते कि दद्दा घबराओं नहीं गैस हो गई है, लो यह चूरन एक हफ्ता खा लेना आराम आ जाएगा।  अस्पताल के डाक्टर कह रहे थे कि अगर दद्दा को थोडा पहले दिखा देते तो मामला इतना नहीं बढता।

सुबह सात बजे से ही नर्सो का आना जाना शुरू। कभी दद्दा का ब्लड प्रेशर, ब्लड टेस्ट, दवा। फिर सफाई वाले, झाडू पोचा। फिर दद्दा का स्पंज, हफ्ते में एक बार दाढी बनाना। फिर जूस, नाश्ता। ढेर सारी दवा। फिर दुबारा सन्नाटा दोपहर तक। फौज की फौज आनी शुरू। पहले ट्रेनी डाक्टर, बताया जाता कि कैंसर पैशेंट की दिनो दिन हालत कैसी होती है। मानो दद्दा खुद एक डाक्टरी किताब बन गए हो। कभी कभी तो गुस्से में कह देते कि सालों कभी अपने बाप दादा पर यह जुल्म करोगे। फिर जूनियर डॉक्टरों का जमावडा मानों दद्दा चिडियाघर के शेर हो और सब देखने चले आ रहे है। आखिर में सीनियर डॉक्टर रे जिनके वह मरीज है। स्टेथेस्कोप से दिल सुनते और कहते अरे मिस्टर चौहान अब तो आप बहुत ठीक हो रहे है। रोज की यही कहानी। साल के 365 दिन, अब तो नसों‍र् और हैल्परों की शक्ले तक याद हो गई। रोजी, एनी, की सुबह आठ से रात आठ डयूटी, लक्ष्मी, क्यूटी की रात आठ से सुबह आठ तक डयूटी। हर पंद्रह दिन में क्रम बदलता है, सुबह वाले रात को रात वाले सुबह। बस बदलता नहीं है तो अस्पताल का कमरा, कमरे में दो बैड और एक बैड पर दद्दा।

कल तो दद्दा ने ऐसा काम कर दिया कि डॉक्टरों के भी पसीने छूट गए। सुबह एक पेशेंट आया। उसका टखना बिल्कुल मुडा हुआ था। दद्दा ने पूछा तो बताया कि बस से उतर रहा था। पर उतरते हुए एक स्कूटर वाला उसी साईड से आ गया और वह धडाम से स्कूटर के उपर गिर गए। स्कूटर वाल तो बच गया पर उसका पैर स्कूटर के नीचे आ गया। अस्पताल में अभी एक्स रे हुआ है, फ्रेक्चर है, रॉड डलेगी। दद्दा ने कहा अरे भाड में गए डॉक्टर। अरे स्कूटर के नीचे आने से भी टांग टूटती है। मेरी टांग में तो बैल चढ गया था। बता कि स्कूटर भारी या बैल। जब मेरी हडडी उससे नहीं टूटी तो तेरी हडडी अदने से स्कूटर से कैसे टूट सकती है। दिखा अपना पैर। बगैर उसको कोई मौका दिए, लिया पैर हाथों में और मुडे टखने को धाड से सीधा कर दिया। कडाक की आवाज और वह मरीज जो जोर से चीखा, सारे डॉक्टर भागे भागे आए। मरीज पसीने पसीने और बेहोश। स्ट्रेचर में फौरन ले गए। पता लगा कि जो टखना उन्होने सीधा किया वह दूसरा पैर था।  अब दोनो पैरो में फ्रेक्चर है, दोनो में रॉड डलेगी। उस मरीज ने कह दिया कि जान ले लो पर दद्दा के पास मत ले जाना।

आज दद्दा की कीमोथेरेपी है। सुबह से ही दद्दा परेशान है। हर कीमो के बाद उन्हे थकावट और उल्टी आती है। बाल भी सारे झड गए। दर्द भी बहुत होता है जब कीमो की दवा अंदर जाती है। कीमो खत्म होते ही डॉक्टर खुराना बोलते कि बहुत अच्छा रेस्पोंस है, हो सकता है कि अगले हफ्ते आपकी छुटटी कर दे। छुटटी, यह तो दद्दा पिछले एक साल से सुन रहे है। उन्हे भी पता है छुटटी कब मिलेगी। पर वह इंतजार कर रहे है, अपने घर जाने का इंतजार, अपने गांव वापस जाकर दिवाली मनाने का इंतजार। रोटी और गुड के साथ मलाई वाला दूध पीने का इंतजार और अपने विंदु की दुकान खुलने का इंतजार। 

उन्हे एक और चीज का इंतजार है:

अपने मर्ज का इंतजार, जिसका इलाज अभी चल रहा है। उन्हे विश्वास है कि कैंसर जैसी बीमारी कुछ होती ही नहीं है। टीबी होता है, चेचक होता है, माता होती है, हैजा होता है। कैंसर कुछ नहीं होता, सब शहरी छलावा है।

दद्दा आज भी अपने मर्ज का इंतजार कर रहे है।

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- प्रतिमान उनियाल

कविता: तेरा नाम

तेरा नाम

आज फिर नाम दिखा तेरा, मेरे आईने में
अक्स में ही कहीं छिपा था जो बाहर निकल आया
मुददतें हो गई उन अक्षरों को पढे
पन्नें भी धूल से सन गए
कुछ गर्द आंखों में भी गिर गई है

सिर्फ नाम तेरा पढने की आरजू से
फिर खोल बैठे है पुरानी हिसाब की किताबें
क्या पता कुछ ले दे कर
तेरा नाम फिर अपने से जोड लूं

कितने बरस यूं ही बीत गए
सब वैसे ही सहेज कर रखा है
क्या पता तुम फिर से अपने नाम वाले गानों का कैसेट मांग बैठो
हो सकता है तुम अपने नाम वाली वो किताब भी मांगों
जो मैने तुमसे दो दिन में लौटाने का वादा किया था।

दे ही दूंगा तुम्हें वो सब कुछ
जिसमें तुम्हारा नाम अंकित है
पर तुम्हारा नाम उन सब चीजों से फाड कर
फिर चिपकाउंगा उसे अपने अक्स पर
आखिर आईने के सामने 
तुम्हारा नाम देखेने को जो मिलेगा

- प्रतिमान उनियाल

कहानी: बर्थ

कहानी :
बर्थ

अरे भाई कौन सा स्टेशन आ रहा है, आगरा कब आएगा, भाई, अरे छोडो सुनाई नहीं पडता इसको शायद, कान में डटटक लगाए हुए है। अंकल आप को आईडिया है कौन सा स्टेशन आ रहा है। शायद आगरा, क्योंकि पिछला स्टेशन फरीदाबाद था जिससे चले हुए चार घंटे से ऊपर हो गए है।
आगरा....अभी आगरा ही पहुंचे है, अचानक शरद के मुंह से निकला। वही शरद जो कान में हैडफोन लगाए गाना सुन रहा था। उसे किसी से बात करना पसंद नहीं, खासकर ट्रेन में इन लुंज पुंज से लोगों से जो मुंह में गुटका दबाए रखते हो और हर स्टेशन में कूदकर पूडी भाजी और पकोडी खाते हो। कितने अनहाईजनिक लोग होते है।

आगरा पहुंच रहे है सात बजे, मतलब ट्रेन एक घंटा लेट है। अभी एक घंटा, त्रिवेंद्रम जाते हुए तो कई दिन लेट हो जाएगी, अचानक उसे कोफ्त भरी हंसी आई। इस रेनू को भी अभी शादी करनी थी। वो भी त्रिवेंद्रम में, हद है, ऊपर से जून की गर्मी का सितम।  रेनू, शरद की मौसेरी बहन है। सबसे ज्यादा लगाव भी है और मानता भी बहुत है। रेनू भी फोन पर शरद भैया, मैं आ रही हूं कहती हुई हर छुटिटयों में लुधियाना पहुंच जाती। और फिर उधम, कभी शॉपिंग, कभी फिल्म देखना, हर सुबह यूनिवर्सिटी के मैदान में सैर के लिए जाना। शरद की बीवी नेहा भी रेनू को अपनी असली ननद ही मानती। वैसे शरद की अपनी बहन भी है पर शादी के बाद वह कनाडा ही सैटल हो गई है, बातचीत भी कभी स्काईप पर तो कभी सीधे आईएसडी कॉल। शरद के बच्चे बंटी और सोना भी रेनू बुआ के पीछे लगे रहते।

शरद की सोचने की रेलगाडी भागी चली जा थी। रेनू को भी शादी की ऐसी जल्दी थी कि त्रिवेंद्रम में ही कॉर्ट मैरिज कर ली और अब खबर भेज रही है कि भैया एक छोटा सो रिसेप्शन रखा है, प्लीज आ जाओ।परेशानी यह की नेहा के चाचा के लडके की शादी भी परसो भटिंडा में है। एक तरफ साले साहब, दूसरी तरफ बहन की शादी। तय हुआ कि नेहा बच्चो समेत भटिंडा जाएगी और मैं अकेला सैकेंड स्लीपर नॉन एसी से त्रिवेंद्रम। अरे दो दिन पहले एसी डब्बे में तो रिजर्वेशन मिलेगा नहीं। तत्काल में यह मिल गया, यही गनीमत है।

पर गर्मी का क्या करें। अभी आगरा से ही गाडी निकली। सुबह पांच बजे का चला हुआ, दिन भर गर्मी, धूल, बदबू और शाम सात बजे तक सिर्फ आगरा। टाईमटेबल के हिसाब से गाडी परसो शाम को 6 बजे त्रिवेंद्रम पहुंचेगी, अगर लेट ना हो। पर यह तो अभी से ही....ए भाई जरा पैर उधर करना, एक सूटकेस रखना है। शरद का गुस्सा फट पडा, क्यों रखना है, मेरी सीट है, मैं लेटा हुआ हूं। शरद को ललकारते हुए पहलवाल नुमा शख्स ने कहा, क्यों बे तेरे बाप की ट्रेन है। टिकट लेकर पूरे कंपार्टमेंट में लेटेगा क्या। शरद ने कुनमुना होकर सूटकेस को जगह देने के लिए पैर समेट लिए। कितनी बार उसने अखबार में पढा था कि सहयात्रियों में झगडा हुआ और एक को ट्रेन से नीचे फैंक दिया। नहीं, ऐसे ही ठीक है। उसने फिर से कानों में हैडफोन लगा दिए।

हाथ में पाउलो कोहलो की किताब, कान में हैडफोन, पर शरद तो सोचे ही जा रहा था। कितना खुश था जब उसको लुधियाना में एक बडे निजी बैंक में मेनेजर की नौकरी लगी। पूरे दो साल हो गए थे एमबीए की हुए। एमबीए नहीं एमबीए फिनांस वो भी जालंधर की सबसे बडी निजी यूनिवर्सिटी से। पूरे 6 लाख खर्च हुए थे। पर नौकरी मिल रही पांच हजार महीना, ज्यादा से ज्यादा 8 हजार महीना। एमबीए फिनांस सिर्फ आठ हजार महीना, करनी पडी क्योंकि एजुकेशन लोन की किश्ते शुरू हो गई थी। पिताजी भी इतना भर कमाते की पांच लोगों का परिवार चल सके। पिताजी, माताजी, दादी, शरद और छोटी बहन। शादी नहीं हुई। पर लुधियाना में नौकरी मिलने के एक साल में ही उसकी शादी तय हो गई। समय कितनी तेजी से गुजरता है,दस साल हो गए लुधियाना गए हुए। या यूं कहे 10 साल हो गए बादशाहपुर छोडे। अब रोज रोज तो वहां नहीं जाया जाता, पहले तो फिर भी महीने दो महीने में एक बार पर जबसे बंटी और सोना हुए तब तो साल में एक बार ही मां बाउजी के दर्शन हो पाते है। अचानक एक झटके से पूरी बोगी हिली। अरे क्या हुआ, खिडकी से चिल्लाते हुए उसी पहलवान ने पूछा। हां, जैसे बाहर कोई उसको जवाब देने के लिए बैठा है। करीब आधा घंटा रूकने के बाद ट्रेन दुबारा चलनी शुरू होती है। अरे क्या हुआ भाई, तभी दूर की सीट से आवाज आई, अरे कोई ट्रेन के नीचे आ गया था।

पर शरद इस घटनक्रम से परे अपनी ही सोच में डूबा था। लुधियाना वाले घर में कोई भी अपना नहीं आता। हां कभी कभी रेनू आ जाती। रेनू और शरद की सभी भाई बहनों में सबसे अच्छी पटती थी। सात मौसरे भाई बहन। सब छुटिटयों में इकटठा होते और खूब हुडदंग मचाते। पर रेनू के आते ही पल्टन में जान आ जाती। रेनू भी शरद को अपनी सारी बाते शेयर करती। बताती कि उसका कोई बॉयफ्रेंड है पर मम्मी पापा उसका आना पसंद नहीं करते। कॉलेज का दोस्त है। शादी करना चाहते है पर पापा तैयार नहीं होगें क्योंकि वो मलयाली है। इतनी जल्दी शादी का भी सोच लिया, सोचा क्या, कर भी ली, बताया भी नहीं, अब रिसेप्शन में बुला रही है। मलयाली है तभी त्रिवेंद्रम में शादी....सोचने का क्रम चलता रहता अगर कुली और चाय्य चाय्य की आवाज से तंद्रा भंग नहीं होती। झांसी, हां यही लिखा था सामने रेल के खंबे में। भूख लग रही थी। सुबह पांच बजे का निकला सिर्फ दो परांठे खाये थे, दिन में खाने का मन नहीं हुआ। टाईमटेबल देखा, झांसी में 10 मिनट रूकती है ट्रेन। चलो उतर कर कुछ खाने को देखा जाए। एक ठेले पर रेलवे का जनता खाना, चार सूखी पूडी और तरीदार आलू। दूसरे ठेले में बासी ब्रेडपकोडे और समोसे। सामने रेलवे की कैंटीन, वही पूडी सब्जी, सैंडविच, ऑमलेट। भूख में इच्छाएं मर जाती है। अरे भाई एक पूरी सब्जी, एक माजा, एक बिसलेरी और एक चिप्स का पैकेट देना। अरे पूरी कब की तली है, हां तुम तो कहोगे ही कि अभी 10 मिनट पहले तली थी। दुकानदार ने कोफ्त भरी नजरो से कहा 95 रूपये, और हाथ में एक डब्बा और चिप्स, ठंडा और पानी पकडा दिया। जल्दी से पैकेट संभालकर वापस गाडी में बैठ गए। ठंडी पूरी और आलू इस वक्त इतना स्वाद दे रहे थे जैसे वह उसका मनपसंद व्यंजन हो। गाडी प्लेटफॉर्म से सरक रही थी। सामने वाली सीट पर एक बच्चा कातर निगाह से उसको खाते हुए देख रहा था। शरद ने भी भोलेपन से पूछा, बेटा पूरी खाओगे, उसके हां ना से पहले उसकी मां बरस पडी। रहने दो भैया, अभी इसने खाया है। क्या बाबू कितनी बार समझाया है कि अंजान लोगो का कुछ नहीं खाते। खुनमुनाते हुए बच्चे ने अपनी मां को देखा और भुनभुनाते हुए शरद सीट की दूसरी तरह मंुह करके बैठ गया। मन में विचार आया कि नेहा ने अब तक खा लिया होगा, फिर याद आया कि अरे वो तो कजिन की शादी में गई है, मजे कर रही होगी। और यहां मैं गर्मी में सडी पूरियां खा रहा हूं। 

परसों त्रिवेंद्रम, एक दिन रूक के शुक्रवार को वापसी की ट्रेन। इतवार की रात को वापस घर। खाया पिया कुछ नहीं, गिलास तोडा बारह आना, मतलब साला इतनी दूर जाओ और एक दिन रूक कर वापस। पूरे टूर का खर्चा सब मिलाकर 20 हजार जिसमें रेनू के कपडे और कुछ गिफ्ट शामिल है। एक सोने का सेट भी खरीदा अलग से, बहन है, अभी नहीं दूंगा तो कब दूंगा। रेनू तो कह रही थी कि भैया खर्चा मत करना, बस एक साडी गिफ्ट करना, अरे ऐसे अच्छा थोडे ही लगता है। रेनू को हमेशा मेरे खर्चे की चिंता रहती थी। जब मैं एमबीए कर रहा था तो वह मुझे कभी मोबाईल भेज देती, एक बार तो लैपटॉप ही दे दिया। मैंने मना किया तो कहा कि अगर मौसाजी देते तो मना करते, समझो उन्होने ही दिया। उसी लैपटॉप में प्रेजेंटेशन बना बना कर, पूरी क्लास में बेस्ट प्रेजेंटेशन मेकर का इनाम जीता था। एक बार पता नहीं कहां से रेनू को पता चला कि मैनें पिताजी से किताबें खरीदने के लिए 5 हजार रूपये मांगें है। उसने पिताजी के नाम से मुझे 6 हजार का मनीऑर्डर भिजवा दिया।जब सच्चाई पता चली तो उसने कहा कि भाई को ही तो दिया है, कोई अहसान थोडे ही किया है। जब नौकरी लग जाएगी तब वापस कर देना। तो क्या उसकी शादी में सोने का सेट देना गलत है, अब बीवी क्या समझे इस रिश्ते को। सोचते सोचते शरद के खर्राटे पूरे कंपार्टमेंट में गूंजने लगे।

हां भई टिकट, कहां है तेरा टिकट, यह तो गलत डब्बा है भाई, तेरा टिकट तो एस2 का है और यह एस 5 बोगी है। शोर सुनकर शरद की आंख खुल गई। घडी में सुबह के चार बज रहे थे। सामने प्लेटफॉर्म के बोर्ड में इटारसी लिखा हुआ था।  क्या मुसीबत है, ना सोने देते है, और उफ यह गर्मीमुंह फेरकर शरद फिर सोने की कोशिश करने लगा। हा हा हा जोर जोर से ठहाके और बातों का शोर, आंख पलटकर देखा कि सामने वाले बर्थ में कोई परिवार इसी स्टेशन से बैठा है। अरे यार सोने दो, शरद ने भरराते हुए कहाहां हां ठीक है ठीक है। अरे चंदा चादर ढंग से बिछा। अरे यह सूटकेस यहां क्यों रखा। शरद ने फिर गर्दन उठा कर देखा पर सामने वाले तो बेपरवाह अपने में ही तल्लीन थे। अरे भाई यह ट्रेन थी कोई रिश्ते तो थे नहीं जिसमें एक दूसरे का ख्याल रखा जाए। जब शरद ने पहली बार रेनू को बताया कि उसका रिश्ता तय हो गया है तो लगा कि रेनू तो बस मोबाईल फाड कर अभी आ जाएगी। क्या नाम है भाभी का, कहां कि रहने वाली है, कब मिलने ले जा रहे हो। अरे बस कर रेनू, उनका नाम नेहा है, यही जलंधर की है। और रेनू को छेडने का मौका मिल गया। उनका नामउनका क्या बात भैया, इतना शर्माना भी ठीक नहीं। ऐसा करते है, मैं अगले हफ्ते आती हूं और भाभी से उनके घर पर मिलती है। तुम्हे आना है तो आओ नहीं तो सिर्फ पता बता दो। और वो सच में नेहा से मिलने अगले हफ्ते जालंधर पहुंच गई। जब बंटी हुआ तो ना जाने क्या क्या उठा कर ले आई, वॉकर, खिलौने, कपडे, चांदी के कडे, सोने की छोटी चेन। मना करने पर रूआंसी होकर बोली, ठीक है भाई अगर मैं बुआ होकर अपने भांजे को कुछ नहीं दे सकती तो मैं यहां से जा रही हूं। और सच में उसने अपना सूटकेस उठा लिया। मान मनौव्वत करने के बाद सूटकेस जमीन पर उतारा। 

अरे ये सूटकेस किसका है, चलने की भी जगह नहीं, किसी के चीखने की आवाज आई। शरद आधी तंद्रा से उठा कि कहीं उसका सूटकेस तो नहीं। अरे सच में उसी का सूटकेस, पर वो तो सीट के नीचे था, तो यह इतना किनारे कैसे पहंुचा। साइड अपर में सफेद कुर्ते पजामें में लेटा एक पान चबउव्वा बोला, भाईसाहब सूटकेस को चेन से बांधकर रखो, कहीं कोई उडा के ना ले जाए। अरे यही शब्द तो रेनू ने नेहा से कहा था कि मेरे भाई को अब चेन से बांधकर रखना, इतना हैंडसम और स्मार्ट है कि पता चले किसी और लडकी का दिल इन पर आ जाए और इनको उडा कर ले जाए। शरद हंस दिया। अरे अजीब आदमी है, एक तो सलाह दो और उपर से यह साहब हंस रहे है, पान चबउव्वा ने खीजते हुए कहा। शरद ने गंभीर होते हुए कहा कि सॉरी, मैं कुछ और ही सोच रहा था।

अरे कौन सा स्टेशन आ रहा है। पान चबउव्वे ने कहा कि नागपुर निकल चुका है अब तो छोटे मोटे स्टेशन ही आएगें, बडा तो अब सीधे वारांगल फिर विजयवाडा है। कहां जा रहे है, शरद ने कहा त्रिवेंद्रम, और आप। कुर्ता छटकते हुए बडे ही स्टाईल में कहा कि कोयंबटूर, वहां मेरा साला रहता है। एक हफ्ते वहीं आराम करूंगा, फिर उसे कहूंगा कि रामेश्वर घुमा के ला। घूमने का बहुत शौक है मुझे। वह बोलते जा रहा था पर शरद का ध्यान कहीं और था। घूमने का शौक तो रेनू को भी है। तभी तो ग्रेज्युएशन शिमला से, पोस्ट ग्रेज्यूएशन इलाहाबाद से, नौकरी करी चैन्नई में फिर वहां से हैदराबाद, बैंग्लौर और अब त्रिवेंद्रम। घर में तो कदम ही नहीं पडते, जब भी लुधियाना आती, एक मिनट भी नहीं टिकती। भाभी यहां घुमाओ, चल बंटी गोलगप्पे खा कर आते है। एक दिन तो बंटी और सोना को बाजार ले गई। सोना तब 2 साल की रही होगी। पहले गोलगप्पे खाये, फिर जूस पिया, फिर मोमोज खाए, फिर ऑमलेट खाया। रात होते होते सोना को उल्टियां शुरू। रेनू तो देखकर रोने लगी। नेहा ने ही समझाया कि अरे रो क्यों रही है, ज्यादा खाने से अपच हो गई है सुबह तक ठीक हो जाएगी।

स्टेशन पर स्टेशन आ रहे थे, पर मंजिल अभी भी दूर थी। कब त्रिवेंद्रम आएगा, रेनू ने क्या नाम बताया था अपने पति का, बस आखिर का श्रीवत्सा ही याद है। जो भी हो, कैस होगा, फोटो दिखाई थी रेनू ने, पर शक्ल याद नहीं। वैसे भी ज्यादातर दक्षिणी धोती पहनते है। पता नहीं रेनू वहां खप पाएगी। अरे उसको वहां थोडे ही रहना है। रेनू ने ही बताया था कि श्रीवत्सा अपना ट्रांसफर मुंबई ले रहा है। अच्छा ऑफर है। रेनू भी वहीं नौकरी देख लेगी। बहुत तेज है, घर संभाल ही लेगी वो। 

शादी के बाद वो रेनू और उसके पति को लुधियाना आने के लिए कहेगा। छोटा घर है, पर रेनू का दिल बडा है, वो अपने श्रीवत्सा को भी समझा देगी। अब शादी तो कोर्ट में कर ली है नहीं तो पूरा प्लान था कि रेनू की शादी का आधा खर्च वहीं उठाएगा। आखिर रेनू ने भी तो उसके खर्चे उठाए थे। कोई बात नहीं, अभी तो बहुत मौके आएगें, लेने देने के, तब कसर पूरी कर दूंगा। वैसे जो सोने का सेट ला जा रहा हूं वो भी 60 हजार का है। मन तो कर रहा था की कंगन और एक चेन भी ले लूं पर सुनार कोई सगे वाला तो है नहीं। जितना बैंक में जमा था, 10 हजार छोड कर सब खर्च कर दिया। ठीक है 20 दिन गुजारा कर लेगें इनमें, अब रेनू की शादी है किसी और की थोडे ही है।

रेल अपनी पूरी रफ्तार से चल रही है, शरद की यादो की रेल भी। दोनो को त्रिवेंद्रम पहुंचने की जल्दी है, रेनू से मिलने की जल्दी है।
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- प्रतिमान उनियाल        

कहानी: रवानगी

कहानी
रवानगी

आज विभाग में सुबह से गहमागहमी थी। ज्यादा बडा विभाग नहीं है। मात्र 7 लोग काम करते है रमेश जी को मिलाकर। और आज रमेश जी का इस दफ्तर में आखरी दिन है। नहीं नहीं रिटायर नहीं बल्कि अपने भविष्य को नया रंग देने के लिए सम्मानीय तरीके से इस्तीफा दिया था। भविष्य को नया रंग देना क्या होता है और क्यों कोई दस साल के बाद अचानक इस्तीफा देदे, यह राज दफ्तर के किसी भी व्यक्ति को नहीं पता चल पाया। रमेश जी को विभाग में सब सम्मान से देखते है, चूंकि विभाग में बॉस के बाद वरिष्ठता में उनका ही नंबर आता है तो उनको सेकेंड इन कमांड का दर्जा भी मिला हुआ है।

ठीक 8:45 बजे रमेश जी धीमे पर सधे कदमों से अपना केबिन खोलते है। पीयन दौडता हुआ उनके पास आता है गुड मार्निंग सर। हमेशा की तरह आज भी रमेश जी सबसे पहले दफ्तर पहुंचा था। बाकी लोग 9:15 या 9:30 से पहले तो बिल्कुल नहीं पहुंचते हां बल्कि बॉस के हमख्याला और हमनिवाला जरूर 10 बजे तक पहुंच जाते। पर रमेश जी हमेशा कहता था कि समय से आओ और अगर काम खत्म हो गया है तो समय से घर जाओ। हमेशा अपने काम से प्यार करो, कंपनी से नहीं। परिवार ही जीवन भर साथ रहेगा, कंपनी हमेशा साथ तो ना देगी।

संजय, पीयन उनके पास आया, कहा, सर आज आप सच में जा रहे हो। हां भाई जा रहा हूं पर सिर्फ इस कंपनी से। मेरा घर तो तूने देखा ही, जब मन करे आ जाना। और जो नया काम में शुरू करने जा रहा हूं, उसमें तेरी जरूरत पडेगी। पीयन की नहीं बल्कि एक अफसर की।  संजय की आंख में आंसू आ गए। तीन साल पहले की बात थी। संजय को पीयन के रूप में काम करते हुए एक साल हो गया था। पर उसको दुनिया जहान की जानकारी होती। अनेक बार पर जब कोई सीट पर नहीं होता और फोन की घंटी बजती तो बिल्कुल पेशेवर तरीके से वो फोन पर बात करता और संदेश लिख लेता। कई बार जब बाहर से एग्जीक्यूटिव लेवल का कोई आता अपना सामान दिखाने के लिए, तो संजय हमेशा उस माल में मीन मेख निकालता और पैसे कम करने की बात करता। कभी कभी तो बॉस उसे कहती कि अखबारों से कंपनी की खबरे निकालो तो वह हिन्दी अंग्रजी अखबारों से अपनी कंपनी की खबरे निकालता, काटता और फाईल में चिपकाता। एक दिन रमेश जी ने कहा कि तू बीए क्यों नहीं कर लेता। कैसे करूं सर, 12 घंटे यहां काम फिर घर में पूरा परिवार। ना समय निकाल पाउंगा और ना ही फीस के पैसे हो पाएंगें। रमेश जी ने सलाह दी की पत्राचार से तो लगभग हर यूनिवर्सिटी बीए कराती है और उनकी फीस भी कम होती है। जोर डालने पर अगले हफ्ते संजय फॉर्म ले आया। रमेश जी ने अपने हाथों से उसका फॉर्म भरा और कहा फीस की कभी चिंता पर करना, मैं हूं ना।

दोे महीने पहले ही उसने सबको मिठाई खिलाई थी। उसका बीए पूरा हो गया था। एक चपरासी ग्रेज्यूएट हो गया, कुछ को यह बात हजम नहीं हो पा रही थी। पर रमेश जी सबसे ज्यादा खुश दिखे। एक महीना गुजरने के बाद रमेश जी ने संजय से पूछा कि बीए तो कर लिया अब एमए कर ले। संजय ने कहा कि सर मैं आपसे सलाह लेने ही वाला था कि एमए करूं या कुछ और। कुछ और क्या। सर एमबीए।क्या  एमबीए, पागल मत बन, नहीं हो पाएगा तुझसे और फीस भी तो हजारों में होगी। । संजय अपने बैग से एक ब्रोशर निकालकर लाया। सर यह निजी विश्वविद्यालय पत्राचार से एमबीए कराता है और क्लासेस सिर्फ शनिवार और इतवार। फीस तो देखिए हर सेमेस्टर में सिर्फ 7500 रूपये। रमेश जी ने कहा कि पर तेरा वेतन तो सिर्फ 7000 है फिर पूरा परिवार। अरे सर, संजय ने समझाते हुए कहा कि हजार बारह सौ हर महीने जमा करूंगा। सर परिवार को संभाल लूंगा। अगर कुछ करना ही है तो कुछ झेलना भी पडेगा। और सर ऐसा करो आज आप इनके सैंटर चलो। आप को ज्यादा आइडिया है। अगर आपको ठीक लगा तो एडमिशन ले लूंगा। रमेश जी ना केवल संजय के साथ सैंटर गए बल्कि उसका फॉर्म भी भरवा दिया साथ ही साथ एडमीशन और पहले सेमेस्टर की फीस भी तुरंत वहीं जमा करा दी। संजय को सिर्फ इतना कहा कि एमबीए बन के दिखा और बता दे इन ऑफिस वालों को कि चपरासी भी अफसर बन सकता है।

पता नहीं क्यों आज संजय कांपते हाथों से चाय लेकर रमेशजी के केबिन में दाखिल हुआ। सर मत जाओ। उसी वक्त अनिल दफ्तर में दाखिल हुआ। डील डौल के कारण वह विभाग का महाबली भीम है। पर आज अनिल की चाल भी सुस्त थी। रमेश जी का केबिन सबसे पहले पडता है। अनिल अंदर घुसा और सामने की कुर्सी में धंसते हुए बोला। सर पक्का जा रहे हो ना। प्लान तो नहीं बदलोगे। आखिर आपके बाद मैं ही संभालूंगा आपका केबिन। अनिल की आंख से आंसू टपाटप झर रहे थे। रमेश जी भी मुस्कुराते हुए बोले हां कमीने अब तू यहां पर राज करियो। राज। हां सर राज करने के दिन आ गए एक आप ही कांटा थे। बहुत गहरी दोस्ती है अनिल और रमेश जी की। अनिल के बडे भाई संजीव, रमेश जी के कॉलेज के जमाने के दोस्त है और आज भी संजीव और रमेश के परिवार वाले दोस्ती से ज्यादा रिश्तेदारों वाला व्यव्हार करते है। करीब नौ दस साल पहले जब दोनो की शादी नहीं हुई थी तो अमूमन रोज ही एक दूसरे के घर आया जाया करते थे। अब कहां इतनी फुर्सत। बहरहाल, एक दिन संजीव ने कहा कि उसका छोटा भाई किसी भी एंट्रेंस में निकल नहीं पा रहा है। कौन सा कोर्स करे की भविष्य में नौकरी मिल जाए। रमेश जी ने कहा कि जो कुछ नहीं कर पाते वह पत्रकारिता करते है। और इस तरह से अनिल का पत्रकारिता में प्रवेश हुआ। फिर अनिल ने छोटे मोटे अखबारों में काम किया पर आय ज्यादा नहीं होती और उसकी शादी करवाने के लिए परिवार का दबाव। संजीव को रमेश जी ने सलाह दी कि हमारा दफ्तर जनसंपर्क कार्यालय है और अनिल के पास पत्रकारिता का अनुभव भी है तो हमारे यहां ही नौकरी के लिए अपना बॉयोडेटा भेज दे। इस तरह अनिल का विभाग में प्रवेश हुआ। रमेश जी हमेशा अनिल को कहते थे कि तू मेरा छोटा भाई समान है इसलिए यहां चिंता मत करना। अनिल भी बहुत मान देता है रमेश जी को। रमेश जी दिल्ली में रहते और अनिल गाजियाबाद। इन दोनो की दोस्ती इस कदर घनघोर थी कि रोज शाम को एक साथ निकलते और कभी अनिल दिल्ली होते हुए गाजियाबाद जाते तो कभी रमेश जी गाजियाबाद होते हुए दिल्ली। अनिल को खाने का बहुत शौक है। दोनो के दोनो शाम को कभी किसी ढाबे में चाय ऑमलेट खाना, कभी किसी ठेले में लिटटी चोखा या कचौडी समोसे आदि।

अभी कुछ महीने पहले रमेश जी के पास उनके केबिन में अनिल आया और सर नीचे झुकाकर कहा कि सर बहुत दिनों से आपसे सलाह लेने की सोच रहा था। क्या हुआ। सर आपको पता है कि मैं भाई के साथ रहता हूं। उनका भी दो बच्चों का भरा पूरा परिवार है और अब मेरा बेटा बाबू भी बडा हो रहा है। कुछ महीनों में स्कूल जाना शुरू करेगा। अरे तो दिक्कत क्या है। सर मैं कुछ दिनों से घर ढूंढ रहा हूं। एक पसंद कर लिया है, दो कमरो का है। मतलब क्या कहना चाहते हो रमेश जी ने आंखों में आंख डालते हुए कहा। मैं भाईजान से अलग होना चाहता हूं। गुस्सा तो रमेश जी को इतना आया कि अगर दफ्तर ना होता तो एक झापड रसीद कर देते। । पर इतना ही कहा कि अब बच्चा इतना बडा हो गया कि अपने मां बाप से अलग होना चाहता है। तुम्हारे मां पिताजी तो गांव में रहते है पर यहां किसने तेरे को बाप की तरह पाल। भूल गया कि तेरी भाभी तेरे को अपने बेटे जितना प्यार करती है। हां सर आप ठीक कह रहे है पर एक पौधा तभी पनप सकता है जब वह पेड से थोडा दूर रहे। अभी तक मैं पेड पर निर्भर था पर अब मेरा परिवार मुझ पर निर्भर है। आज नहीं तो कल यह दिन आएगा सर। रमेश जी ने पूछा संजीव को मालूम है। ना हिम्मत नहीं हो रही। रमेश जी ने पलटवार किया मतलब जिस पेड से अलग होना चाहते हो उसी को नहीं मालूम। सर प्लीज आप ही भाईजान से बात करे। रमेश जी ने कहा कि देख अनिल मेरा उसूल है कि मैं पारिवारिक मामलों में नहीं पडता। अगर तुम मेरे छोटे भाई तो वो भी मेरा दोस्त है। अरे तुम्हे ना लगे या संजीव को ना लगे पर पूरा जमाने को तो यही लगेगा कि एक दोस्त ने दूसरे दोस्त का परिवार तोड दिया। ना तुम्हे ही हिम्मत करके बात करनी होगी।ठीक सर मैं बात करूंगा। जब बेटा अलग होता है तो जिस तरह पिता अपने दुख को छुपा कर बेटे की मंगलकामना करते हुए स्वीकृति देता है वैसे ही संजीव भी मान गया। अच्छी बात यह हुई कि दोनो भाईयों का परिवार रोज ही एक दूसरे के घर जाते है और रमेश जी को भी दो घरों का व्यंजन चखने का मौका मिल जाता।

अरे कहां जा रहा है, रूक चाय यही पी ले। नहीं सर मैं अपनी सीट पर ही चाय पीउंगा। बहुत काम है। हां कामचोर तेरे को भी काम है, रमेश जी ने आंख मारते हुए कहा। उसके आंसूं थम नहीं रहे थे और कांपते हाथों से चाय को छलकाते हुए अपनी सीट पर सिर नीचे कर बैठ गया।

तभी धडधडाते हुए दिनेश दाखिल हुआ। सर कैसे हो, अरे अनिल को क्या हुआ। ओह अरे आज तो आपअरे सर एक बार बोलो ना। एचआर से कहकर आपका इस्तीफा रूकवा देते है। बॉस भी यही कह रहे थे कि उसे बोलो इस्तीफा वापस लेले। दिनेश भाई अगर बॉस सीधे मुझसे कहती तो सोच सकता था। पर छोडो भी नहीं जा पाया तो फिर कभी हिम्मत नहीं दिखा पाउंगा। रमेश दिनेश अनिल को पूरा ऑफिस त्रिदेव कहता। कुछ लोग थ्री मस्कीटियरस भी कहते। जोडी है ही इतनी बेजोड। तीनों के तीनों अगर पहिए है तो एक दूसरे के लिए स्टेपनी भी है मतलब तीनों एक। अनिल से पहले रमेश और दिनेश की जोडी एसे ही थी बेजोड। दिनेश ने रमेश से कुछ महीने पहले दफ्तर ज्वाईन किया था। दस साल कैसे बीत गए। रमेश की शादी दिल्ली से दूर उनके अपने शहर में हुई थी। दिनेश ना सिर्फ खुद आया बल्कि शादी की पूरी फोटोग्रफी और विडियोग्राफी का जिम्मा भी खुद लिया और फोटोग्राफर को लेकर भी आया।  शुरू के कुछ साल तो रमेश, दिनेश के साथ उनकी मोटरसाईकल में आते थे। पर रमेश जी महीने में एक या दो बार मोटरसाईकल में टंकी फुल के पैस देते। फिर बाद में रमेशजी ने कैब करवा दी थी। पर जब भी शाम को ऑफिस से निकलते हुए देर हो जाती तो बेधडक दिनेश की बाईक में बैठ जाते।

यादों की शो रील में तब खलल पडा जब बॉस की आवाज आई। खैर आज रमेश जी के पास कोई काम नहीं था। अपनी जिम्मेदारियों को बाकी लोगों में बांट दी थी। तो सोचा डेस्क और ड्राअर का अपना सामान ही अलग कर लिया जाए। डेस्क में अपना क्या होता। कंप्यूटर, फाईलें, टेलीफोन सब ऑफिस का था। बस एक डायरी थी पर उसमें भी ऑफिशीयर जानकारियां थी। मतलब अब डेस्क बेगाना हो गया। ड्राअर भरा पूरा था। बहुत कुछ।  । पहली नजर एक फोटो पर पडी, ग्रुप फोटो, जब कंपनी के प्रोग्राम से सब लोग जयपुर गए थे। शायद 8 साल पुरानी बात थी, अनिल से पहले, वहां कंपनी की जयपुर ब्रांच का वार्षिकोत्सव था। सुबह सब लोग ‍- तब थे ही कितने, चार ‍- जयपुर के लिए निकले। रास्ते भर गाने गाते हुए, शोर मचाते हुए। ऐसा लग रहा था मानो दफ्तर के अफसर नहीं, स्कूल ‍- कॉलेज के बच्चे जा रहे हो। मानेसर, नीमराणा, नीम का थाना, ना जाने कहां कहां गाडी रूकवा रूकवा कर खाने की फरमाईश करना, ऊंट दिखते ही गाडी रूकवाकर उसकी सवारी करना, चलती गाडी से बाहर की फोटो खींचना।  समारोह खत्म होने के बाद जयपुर घूमना और शॉपिंग करना। साडी की दुकान में रमेश और दिनेश खरीददारी करने के लिए पहुंचे। मोलभाव पुरूषों के रगो में तो बहता नहीं है, तो जो दुकानदार ने भाव लगाए उसी पर कार्ड से भुगतान कर दिया। निकल ही रहे थे कि बॉस आ पहुंंची, साडियां देखी, कितने की ली। क्या 5 हजार। अरे दिमाग खराब है क्या। और आव ना देखा ताव दुकानदार से भिड गई। लडके समझ के लूटोगे क्या। । इस तरह की साडी अभी बीस मिनट पहले मै 800 में लेगई। यह वाली 1200 सौ में। ऐसा करते करते सभी साडियों के दाम बताए। वहां ग्राहकों का भी मजमा लग गया। अरे लूट मचा रखी है। अरे पैसे वापस करो। पूरे 2 हजार । दुकानदार बोला अरे मैडम इन्होने कार्ड से भुगतान किया है। तो मैं क्या करूं, तुम्हे पैसे मिल गए तो बाकी वापस करो। नहीं मैडम। ठीक में अभी पुलिस को फोन करती हूं। और सच में फोन मिला दिया। दुकानदार की हवा खराब। बोला अरे मैडम मैं कर रहा हूं पैसे वापस। लो भाई 2 हजार, जाओ भाई। दिनेश ने बॉस से पूछा कि अब पुलिस ने कॉल बैक कर दिया तो। बॉस ने आंखें झपकाते हुए कहा कि मैनें तो ड्राईवर को मिलाया था ताकि कार लेकर इधर ही आ जाए। मुझे जयपुर थाने का नंबर थोडे ही मालूम है।

बरबस हंसी फूट पडी, अरे दूसरा फोटो बॉस और उनका। हां तब कंपनी के मालिक के बेटे की शादी हुई थी। बॉस को फोटो खिंचवाने का बहुत शौक रहा है। अरे यह फोटो दिवाली वाली, यह होली से पहले। ना जाने कितनी ही फोटो ड्राअर ने अपने में समेटे हुई थी जिसमें हर के साथ यादें लिपटी हुई थी। सोचा बैग में रखूं ना रखंू पर फिर रख ही लिया। अरे यह क्या एक रॉलर कंघा। अनिल हर सुबह सबसे पहले आकर इसी रॉलर कंघे से अपने मैगी जैसे बाल बनाता और यह जरूर कहता कि इसकी सुइंयां इतनी तेज है कि आप पक्का गंजे हो जाओगे। सर पर सच में रमेश जी के बाल कम हो रहे थे। पर रॉलर कंघे से नहीं बल्कि वंशानुगत।

लंच का समय हो गया था। रमेश ने दफ्तर के ऑवन से खाना निकाला और दिनेश के डेस्क की तरफ बढ गया। यह एक पुराना अलिखित नियम था कि खाना सब एक साथ दिनेश के डेस्क पर ही खाते थे। चाहे कोई नया हो या पुराना सब एक साथ।  यह भी एक नियम सा बन गया था कि दिनेश अपना डिब्बा खोलते, बुदबुदाते और अपने घर फोन करके बोलते, क्या बेकार खाना बनाया है या इसमें नमक तो है ही नहीं। उनको और बाकियों को रमेश जी के घर के बने भरवां करेले बहुत पसंद थे और रमेश को दिनेश के घर की लाल मिर्च लहसुन की चटनी। आज भी रमेश भरवां करेले लाए थे पर किसी का भी आज खाने का मन नहीं था। तभी एचआर से पीयन आया कि और रमेश से कहा कि सर आपके कागज तैयार हो गए है, आपको बुलाया है। मतलब विदाई का समय आ गया। यार मैं पहले खाना तो खा लूं। सब लोग बहाना बनाकर अपने सीट पर बैठ गए पर खाना किसी ने नहीं खाया। आज पहली बार अकेले खा रहे थे रमेश जी। एक रोटी खाकर डिब्बा बंद कर दिया और अपने केबिन को बंद करके सामान अपने बैग में रखने लगे। अपना बरसों पुराना बैग और अपनी चिरपिरचित मुस्कान ओढे बॉस के कमरे में गये और हमेशा की तरह कहा राईट मैडम अब जाने की परमिशन दीजिए। आज कॉन्टेक्ट की बजाए चश्मा लगा रखा था उन्होने। बॉस ने बिना निगाह ऊपर उठाए कहा ठीक है, ऑल द बेस्ट। लगा कि उनके चश्में के नीचें से कुछ बूंदे ढलक रही है। शायद मन का वहम था। केबिन से बाहर आकर सबके गले मिले। अनिल तेरा पीछा नहीं छोडूंगा साले अब तेरे घर आउंगा। आ जाना सर आपका ही है। दिनेश ने भी कहा कि मिलते रहना। बाकी लोग भी गले मिले। संजय पता नहीं कहां चला गया था। भागा भागा अंदर दाखिल हुआ। कुछ छुपाते हुए संजना, प्रकृति और मुस्कान को पकडा दिया। रमेश हमेशा से संजना को अपनी छोटी बहन समान माना। जब भी कोई परेशानी होती तो अधकचरी पंजाबी में कहते तुस्सी चिंता ना करो, त्वाडा वीर इत्थे ही है। प्रकृति को आए हुए अभी महीना ही हुआ था पर रमेश सबसे कहते इस लडकी में सीखने की लगन है। आज जाते जाते भी संजना और अनिल को कहा कि देखो मैं जा रहा हूं पर प्रकृति उसकी कमी पूरी करेंगी बहुत होशियार है यह, समझो लेडी रमेश ही है। किसी भी रोते को हंसाने की क्षमता है रमेश में। किसी भी परिस्थिती में वह चुटकुले बोल सकते थे। उनके चुटकुले जिसको संजना हमेशा पीजे कहती है। आज भी उनके पीजे सुनकर सब के होंठों पर हंसी आ गई।

 संजना ने पैकेट खोलकर किताब निकाल कर उसमें कुछ लिखा। प्रकृति ने चॉकलेट निकालकर दी । रमेश जी के पसंद के लेखक की किताब जिसमें उन्होने लिखा था। एक बेहतरीन साथी को.... सदा यंू ही खुश रहना और ऐसे ही खुशियां बांटना.... और सबके नाम थे। 
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- प्रतिमान उनियाल


कविता: हसरत

हसरत

कल तक बारिश से तरबतर
बेपरवाह हम घूमा करते थे
आज अपने ही दडबे में दुबके
छाता ओढे दो बूंद पानी की हसरत
सीने में पाल रखे है

तल्ख इतने कि दूसरे की खुशी में रंज पालते  है
अपनी मुस्कुराहट न जाने कहां छोड आए है
हंसी का भी पैमाना बना दिया है अबतो
कहीं बेतकल्लुफी हमें बीमार ना कर दे

कश्मकश बरकरार है 
जो हुआ कहीं हम ही तो ना जिम्मेदार थे
बेवजह ही अपने गमों को ज़्ामाने की देन मान बैठे रहे
कुछ तो गलत हुआ ही होगा
आखिर चिंगारी भी तो माचिस मांगती है

खत्म भी करो इस दोज़्ाख भरे हालात को
क्या पता, शायद मुमकिन हो
पर बताएं भी तो कैसे बताएं
फासलों से अब नई उचाईंयां छू ली है

सूकून के दो पल ख्वाब हसीन रह गए
हम तो उन्ही पलों के समुन्दर में कहीं गए
दीदार हो ना हो फरक नहीं पडता
यादों के पन्ना हर ओर चस्पां कर गए 

माहौल ऐसा बन पडा
खुद ढोनी पड रही अपनी शख्सियत
ना तब कुछ कर पाएं 
ना अब कुछ कर पा रहे है 
कल तक बारिश से तरबतर
बेपरवाह हम घूमा करते थे
आज अपने ही दडबे में दुबके
छाता ओढे दो बूंद पानी की हसरत 
सीने में पाल रखे है।

- प्रतिमान उनियाल

कविता: आओ उत्सव मनाए

आओ उत्सव मनाए

आओ उत्सव मनाए
यादों का उत्सव मनाए।
जरूरी नहीं
सिर्फ लम्हों का उत्सव ही खुशी दे
कभी गमों की मिश्री भी जरूरी है।
साथ हो तो
पल वहीं ठहर जाता है
बायोस्कोप तो जाने के बाद शुरू होता है।
उत्सव तो जरिया है
दिल में बसे रहने का
नहीं तो कौन किसे कब तक याद रख पाता है
गम का उत्सव सबसे जरूरी
बांटना किसी और से नहीं पडता
अकेले ही लुत्फ आता है, इस खजाने के साथ

आओ उत्सव मनाए
इन नीरस अकेले पलों कां
देखना कोई जाम ना छलक जाए इन आंखों से
देंगें नहीं एक बूंद भी पूरा पी जाएगें इस हाले को
क्या अमृत क्या विष आज तो यही बस बाकी है।
मदहोशी से कम कुछ गवारा नही
आज तो जी रमाने का दिन आया है

आओ उत्सव मनाए
इस तरह की फिर जरूरत न दिखे
खो जाएं ऐसे कि फिर ढूंढने से ना मिले
हसरतें दिल की पूरी कुछ ऐसे करें
रश्क हो दुनिया को कि वो साथ हमारे क्यों ना थे।

आओ उत्सव मनाए
मेरी दीवानगी का जिसका कोई मुकाम नहीं
आओ उत्सव मनाए
मेरी जहालत का जिसका कोई छोर नहीं 

- प्रतिमान उनियाल

कविता: सरसराहट

सरसराहट

आज फिर कहीं से हवा सरसरा के चल रही है
आज फिर बारिश के छींटे मन को भिगो रहे है
आज फिर तुझे ढूंढने को जी कर रहा है
पर कहां किससे पूछंू
अलग हुए तो न मिलने का वचन लिया था
इस बात को भी कई साल बीत गए
अब तो जिंदगी फिर से पिरो कर जी रहे है

कमी नहीं किसी चीज की
दुनिया को खुश करते हुए खुश हो रहे है
जज्बात की अब कोई जगह नहीं
उसको तो वहीं छोड दिया था जब अलग हुए थे
ठसक सिर्फ इस बात की है कि तुम्हारी खुशी नहीं देख पाया
दुनिया तो तुम्हारी भी खुशहाल कहीं दूर बसी होगी
इस बात की खबर मेरे अलावा शायद सब को होगी

दुख इस बात का नहीं तू साथ नहीं
परेशान सिर्फ इसलिए हूं तेरी कोई खबर नहीं
डाकिए मेरे सभी छुट्टी पर है या उनकी भी दुनिया बदल गई
चलो कोई नहीं इस तेजी से छोटी होती दुनिया में
कहीं किसी कोने में तेरा पता दिख ही जाएगा
दरवाजा छूकर वापस आ जाउंगा इस तसल्ली से
कि तुम भी मेरी तरह अपनी दुनिया में खुश हो

- प्रतिमान उनियाल

कविता: बारिश की कहानी

बारिश की कहानी

हर बारिश अपने में एक कहानी है
किसान के लिए सूखे में वरदान तो बाढ में तबाही है
शहर में ट्रेफिक तो स्कूल में छुट्टी की किलकारी है
प्रेमियों के अरमानों को फिर भिगोने की फरमानी है

चाहो तो स्वागत करके तन मन भिगो डाले
नहीं तो कहीं दुबक कर या भीगने के डर से
अपने को कहीं छुपा डालें
या अपनी यादों के दर्पण में फिर वही मंजर दोहरा डाले

बारिश में भीगने वाले से जरा पूछो कि उसका क्या कहना है
पानी से बचने के लिए उसने क्या क्या कर डाला है
कहीं छतरी उडी जाती है कहीं पैर पानी में छप्प से अंदर चला जाता है
कपडों को कीचड से बचाना भी अपने में एक लडाई है
तभी हर बारिश अपने में एक कहानी है

कभी उसके साथ रास्ते में चल दिए कि अचानक बारिश ने घेरा
पकड कर हाथ किसी दुकान की परछत्ती तले या पेड के नीचे
अपने को कम उनको भीगने से बचाना रहा ज्यादा जरूरी
पर मन में एक बात जरूर आती कि काश यह बारिश एसे ही बरसती रहे
तभी हर बारिश अपने में एक कहानी है

उसको घर तक छोडने का अरमान किया बारिश ने पूरा
हर जाने वाले रिक्शे को रोक उसमें बैठने की उनकी जल्दी मचाना
खुले रिक्शे में बैठकर दुपट्टे से अपने को ढांपकर पानी से बचाना
पानी का हर जुल्फ से बहकर चेहरे में जाकर मुझे भिगोना
तभी हर बारिश अपने में एक कहानी है

उसको घर की सीढियों तक छोड वापस आना
आकर घंटो तक बारिश को ताकना
हर एक पिछले पलों को याद करना
गीले कपडो को बार बार छूकर देखना कि कहीं सूखे तो नही
तभी हर बारिश अपने में एक कहानी है

बारिश आज भी हो रही है
हाथ में चाय की प्याली पकड खिडकी से नजारे दिख रहे है
आज भी एक लडका लडकी उसी तरफ बारिश से बच रहे है
आज भी एक जोडा रिक्शे में बैठकर जा रहा है, दुपटटा हवा में लहरा रहा है
आज भी हर वो मंजर याद आ रहा है
तभी हर बारिश अपने में एक कहानी

- प्रतिमान उनियाल



कविता: तुम्हारी.... डायरी

तुम्हारी.... डायरी

मैं डायरी हूं
वही डायरी जिसमें तुम लिखते हो
अपनी हर बात मुझमें उतारते हो
तुम्हारी खुशी में मेरा हर पन्ना खुश
तुम्हारे गम में हर पन्ना आज तक आंसुओं में तर
तुम्हारा साथ रहा साल के हर दिन हर पल

पर उसके बाद क्या
नया साल नई डायरी
मुझे क्यों भुला दिया
ठीक मुझमें अब नहीं कोई पन्ना शेष
पर डायरी तो अब भी वहीं हूं
जिसमें कभी तुम अपना सब न्यौछावर कर देते थे
मेरे पन्ने अब पीले हो चले
पर लिखावट तो तुम्हारी वैसी ही स्याह चमक रही

कभी तो मुझे पलट कर देख लो
कई एसी बाते जो तुम्हारी थी अब मुझमें समाई है
कुछ पल जब केवल मैं और तुम थे
पूरी रात जब सिर्फ मैं तुम्हे सुनती अपने में समेटती
अब दूसरी आई तो मुझे भुला दिया
चलों भुला दिया पर उन पलों का क्या उन बातो का क्या
क्या उन्हें भी भुला दिया
कल को फिर कोई नई दिखेगी
तुम्हारी यह वाली भी पुरानी हो चलेगी
क्या उसका भी तुम परित्याग करोगे
क्या उसको भी मेरे आंसुओं से परिचय करवाओगे

समय तुम्हें भी पुराना कर देगा
तब कोई तुम्हार साथ न देगा
पुराने को कोई सहारा नहीं देता
तब तुम मुझे खोजना
अगर तब तक खाक में न मिली तो मुझे संवारकर पढना
तब मैं तुम्हारा साथ दूंगी जबतक तुम चाहो

प्रतिमान उनियाल