Tuesday, March 1, 2016

कविता: मैं पागल हूं

कविता:  मैं पागल हूं

मैं पागल हूं, बिल्कुल पागल हूं,
बाहर से नजर न आउं, पर अंदर से हूं।
मैं झूठ बोलता नहीं, दुनिया ने सच बोलना छुडवा दिया
मैं सीमित अपने में, पर दुनिया ने गलत अंदाज में इसे लिया
मैं किसी को 'न' नहीं कहता, दुनिया ने सोचने का मौका ना दिया,
धर्म कर्म से प्रेम करने वाला, दुनिया ने मुझे धर्मान्ध ही कह डाला
किसी का बुरा सोचता नहीं, दुनिया ने मुझे ही बुरा बतला डाला।
अपनी ही सीमा रेखा के अंदर अपनी ही दुनिया से उस दुनिया को देखने को
दुनिया ने पागलपन कह दिया।

फिर तो मैं बिल्कुल पागल हूं, सच में पागल हूं
मुझे शोक में दुखी होना, उल्लास में खुश होना नहीं आता, 
मुझे दूसरे का ग़म अपना, और अपना गम सिफ़‍र् अपना ही लगता,
मुझे भीड नहीं एकांत पसंद सुबह नहीं शाम पसंद 
मुझे शोर नहीं सन्नाटा पसंद पर्वत नहीं खाईयां पसंद
मुझे दोस्त नहीं तन्हाई पसंद वो सब पसंद जो दूसरो को नहीं पसंद 
शायद इसलिये कि
मैं पागल हूं, बिल्कुल पागल हूं

मैंने एक एसी दुनिया संजोई 
सब काम अपनी इच्छा से हो, दूसरो के मोहताज न हो
सब लोग सच्चाई के कंटीले पथ पर चले, बेइमानी के गुदगुदे सफर पर नहीं
सब अपनी दिशा खुद चुने, कोई दूसरा न हम पर थोपे
सब अपना व्यक्तित्व अपने पास रखे, दूसरो के व्यक्तित्व पर गिरवी न रखे
यह सब मैं सोच तो रहा हूं, पर क्या यह संभव हो पाएगा
या फिर पागलपन की एक कविता और समझ, इसे भी फाड़ के फेंक दिया जायेपगा।

पागलों की बात पर पागल ही ध्यान देते है
अपना समय बर्बाद न करो, इस कविता को अभी फाड दो
इसमें नारी चित्रण नहीं, न इसमें गरीबी की यंत्रणा है,
अगर कुछ है, तो पागलपन की सनक है

क्योंकि

मैं पागल हूं, बिल्कुल पागल हूं
अगर आप इसमें सहमत नहीं
तो आप भी पागल है, बिल्कुल पागल है।

- प्रतिमान उनियाल

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