Tuesday, March 8, 2016

कविता: आओ हम सब महिला दिवस मनाए

कविता: आओ हम सब महिला दिवस मनाए

आओ हम सब महिला दिवस मनाए
बधाई पहले उनको दे जो हमारी माता, बहन और पत्नी हैं।
उनका योगदान जीवन में सबसे ज्यादा है
या यूं कहे कि हम जीते ही उनके लिए है।
उनके बिना हम अधूरे है, पर हमारे बिना वह भी अधूरे है।

साल में एक बार क्यों, बाकि 364 दिन क्या वह लुप्त होती है
जिनसे जीवन की डोर बंधी हो वह तो हर पल, हर क्षण साथ होती है।
हां मैं मां, बहन व पत्नी की ही बात कर रहा हूं
हर नारी तो पूज्यनीय ही होती है,
पर क्या आपने जीवन की डोर की पूजा की है
एक पल ही सही क्या मां, बहन और पत्नी से दो घडी बैठ कर बात की है
सुबह घर से दफ्तर, फिर रात में दफ्तर से घर
सब इसी इंतजार में रहते की वो हमारी सुने, हम उनकी।

बधाई उन सभी महिलाओं को दे जिनका हमारे जीवन में प्रभाव रहा
बधाई उस डाक्टर और नर्स को जिसने मुझे इस दुनिया में पहला कदम रखवाया
उन सभी शिक्षिकाओं को जिन्होनें मुझे लिखना पढ़ना सिखाया
उन सभी स्कूल और कॉलेज की दोस्तों का जिन्होने सुख दुख बांटना सिखाया
उन सभी नारियों को भी बधाई जिन्होने गाहे बिगाहे मुझे दुनियादारी सिखाई

आओ अभिनंदन करें विश्व की सभी नारियों का 
जिनसे पूरी दुनिया आबाद
पर एक पल के लिए सोचे,
अगर नारी जीवन की रचयिता, तो पुरूष भी जनक है
मां के साथ पिता, बहन के साथ उसका भाई है
पत्नी तभी सौभाग्यवती, जब सुहाग उसके साथ है
कुछ भी कहें पुरूषों का भी बराबर का साथ है
जैसे बिन पाट, तराजू पूरा नहीं
बिन ताला, चाभी का कोई काम नहीं
बिन पहिया, गाडी बेकार है
वैसे ही पुरूष बिन, नारी भी अधूरी है

आओ अब से हर रोज महिला दिवस मनाए
इस बहाने हम उनको और वह हमें मान तो देंगें
हम उनकी और वह हमारी तो सुनेंगे
उनको भी तो पता चलें कि 
कितनी जरूरी है वह हमारे लिए और हम उनके लिए
आओ हम सब अब रोज महिला दिवस मनाए
_X_

- प्रतिमान उनियाल




Tuesday, March 1, 2016

कविता: हम सब मानो यंत्र है

कविता: हम सब मानो यंत्र है

हम सब मानो यंत्र है,
इस महानगरीय जीवन में, हम सब मानो यंत्र है
न कोई तंत्र, न कोई मंत्र, फिर भी हम सब मानो यंत्र है

जिसने जो कहा वह किया,
मना किसी को न किया,
जी का कभी अपना न किया,
बस काम अपना पूरा करते है,
जैसे हम सब मानो यंत्र है

सुबह से लेकर शाम तक, अब न होती थकान
रात से लेकर सुबह तक, अब न सो पाता
जीवन का सारा ढर्रा ही एसा हुआ,
हम सब मानो यंत्र है

रिश्तेदार न हमको पहचाने, दोस्त न हमको जाने
मतलब पडने पर ही पहचाने, नहीं तो रहे बिल्कुल अंजाने
न कोई रिश्ता, न कोई यारी, न कोई पडोसी, न दुनियादारी
हम भूल गये इन सबको, अब तो हुआ व्यवहार भी यांत्रिक
ऐसे जैसे हम सब मानो यंत्र है, हम सब मानो यंत्र है

दुनिया छोटी हुई जरूर, पर दिल की दूरी बढी भरपूर
पहले इस बडी दुनिया में, हम भी थे बहुत बडे
सबको अपना, पराया किसी को न माने थ
अब इस छोटी सी दुनिया में, हम हुए बहुत छोटे
सबको अपना दुश्मन माने, अच्छा किसी को न माने
हमारा व्यवहार ऐसे, जैसे हम सब हम सब मानो यंत्र है
हम सब हम सब मानो यंत्र है

छोटी छोटी बात में अब चाकू तमंचा निकलते
न कोई माने बात तो फट उसको मारते
न कोई दर्द, न शिकन, न मानवता का अहसास
जब कोई मरता, तो सोचते चलो बला टली और फिर करते अट्ठास
इस भयंकर वर्तमान में हम सब मानो यंत्र है
मानों ही क्यों हम सब मानो यंत्र है,
हम सब मानो यंत्र है

हम बदल रहे है यंत्र में,
अब तो सिर्फ शरीर ही मांस का बचा
दिलो दिमाग तो न जाने कब बन गये धातु के
लोग कहते कि दुनिया खतरे में,
पर मानवता ही असल खतरे में

कोई नहीं बदल सकता, इस यांत्रिक दुनिया को
सर्वनाश होना निश्चित है,
उस महानाश के बाद फिर एक नई दुनिया आयेगी,
फिर नया मानव उदय होगा,
पर तब तक तो हम यंत्र है, मानो क्यों, हम सचमुच यंत्र है
हम सब मानो यंत्र है हम सब मानो यंत्र है

_X_
- प्रतिमान उनियाल 




कविता: मैने एक खेल देखा

कविता: मैने एक खेल देखा

मैनें एक खेल देखा,
बंदर भालू का नहीं,
पिघलती सडक पर गलती एक जिंदगी का.
कलंदर था वो, पर अपनी मर्जी का नहीं,
मालिक भेजता दूर, हर रोज बहुत दूर,
आगे बंदर, पीछे भालू, बीच में साइकल चलाता जमूरा.
जानवर तो जानवर रहता, 
पर जमूरा कब जानवर बना नहीं जान पाया

याद इतना पडता कि माई बाप छोड गए थे अकेला,
उस अजनबी सडक पर जो सिर्फ दूर जाती थी,
आती थी तो सिर्फ मजबूरी
आई भी थी, वो एक इंसान की शक्ल लेकर,
दो रोटी सामने फैंक, उसको खरीद जो लिया था।
तब से वो और उसका बंदर भालू, रोज दिखाते एक तमाशा
कभी जानवर आग पर कूदता, कभी जमूरा भूख की आग से झुलसता
ताली खूब बजती उसके हर खेल, पर
यह उसको मुक्ति दिलाये, काफी न थी।

सुबह शुरू होती उसी झोंपडी से, जहां रात उसकी खत्म होती,
अब का पेट तो जैसे तैसे भरा, शाम को क्या होगा मालिक को पता
रोटी वह खा के चलता, जो उसने रात के टिक्कडो से बचाई,
उस रोटी का भी एक हिस्सा बंदर खाता तो दूसरा भालू

आज भी अल सुबह वो निकला, 
बच्चों और बडो को दिखाने तमाशा
घंटे भर तक डुगडुगी हिलाई, 
हाथ थके, पांव सुजे पर कोई न आया
थक हार दूसरी सडक पर निकल चला
सुबह से शाम हो गई पर कोई नहीं आया।

एक जगह कुछ बच्चों को देख, 
ठिठका, खोली रस्सी, शुरू किया नाच
बच्चों को देख कुछ बडे भी आए, 
देखते देखते भीड भर आई।
खूब तमाशा देखा जी भर देखा, 
अब पैसों की बारी आई
छंटने लगी भीड, हटने लगे लोग
कुछ ने पैसे दिये, दस बीस या पचास
एक बच्चे ने रूपया दिये पांच, 
कहा कि यह खेल था आईक्रीम से अच्छा.

आखिर खत्म हुआ तमाशा, 
पैसे गिने, निकले केवल 20 रूपया
पूरे दिन की हवाखोरी,
हाथ आया सिर्फ 20 रूपया
उसमें भी 10 मालिक का और 10 उसका,
उसमें रोटी उसको खानी और खिलानी बंदर, भालू को
इसी दस दस से उसकी जिंदगी चलती
आज भी उसका खेल हुआ, कल भी होगा
सच में, मैने उसका खेल देखा
क्या आपने देखा...?

कविता: मैं पागल हूं

कविता:  मैं पागल हूं

मैं पागल हूं, बिल्कुल पागल हूं,
बाहर से नजर न आउं, पर अंदर से हूं।
मैं झूठ बोलता नहीं, दुनिया ने सच बोलना छुडवा दिया
मैं सीमित अपने में, पर दुनिया ने गलत अंदाज में इसे लिया
मैं किसी को 'न' नहीं कहता, दुनिया ने सोचने का मौका ना दिया,
धर्म कर्म से प्रेम करने वाला, दुनिया ने मुझे धर्मान्ध ही कह डाला
किसी का बुरा सोचता नहीं, दुनिया ने मुझे ही बुरा बतला डाला।
अपनी ही सीमा रेखा के अंदर अपनी ही दुनिया से उस दुनिया को देखने को
दुनिया ने पागलपन कह दिया।

फिर तो मैं बिल्कुल पागल हूं, सच में पागल हूं
मुझे शोक में दुखी होना, उल्लास में खुश होना नहीं आता, 
मुझे दूसरे का ग़म अपना, और अपना गम सिफ़‍र् अपना ही लगता,
मुझे भीड नहीं एकांत पसंद सुबह नहीं शाम पसंद 
मुझे शोर नहीं सन्नाटा पसंद पर्वत नहीं खाईयां पसंद
मुझे दोस्त नहीं तन्हाई पसंद वो सब पसंद जो दूसरो को नहीं पसंद 
शायद इसलिये कि
मैं पागल हूं, बिल्कुल पागल हूं

मैंने एक एसी दुनिया संजोई 
सब काम अपनी इच्छा से हो, दूसरो के मोहताज न हो
सब लोग सच्चाई के कंटीले पथ पर चले, बेइमानी के गुदगुदे सफर पर नहीं
सब अपनी दिशा खुद चुने, कोई दूसरा न हम पर थोपे
सब अपना व्यक्तित्व अपने पास रखे, दूसरो के व्यक्तित्व पर गिरवी न रखे
यह सब मैं सोच तो रहा हूं, पर क्या यह संभव हो पाएगा
या फिर पागलपन की एक कविता और समझ, इसे भी फाड़ के फेंक दिया जायेपगा।

पागलों की बात पर पागल ही ध्यान देते है
अपना समय बर्बाद न करो, इस कविता को अभी फाड दो
इसमें नारी चित्रण नहीं, न इसमें गरीबी की यंत्रणा है,
अगर कुछ है, तो पागलपन की सनक है

क्योंकि

मैं पागल हूं, बिल्कुल पागल हूं
अगर आप इसमें सहमत नहीं
तो आप भी पागल है, बिल्कुल पागल है।

- प्रतिमान उनियाल