Friday, February 26, 2016

कविता: तलाश

कविता:  तलाश

तुझे कहां कहां न तलाशा मैनें,
एक तमाशबीन बन के रह गया
जहां भी जाता, भीड का हिस्सा बन
कभी इधर मुड जाता, कभी उधर

तस्वीर एक दिल में समाई हुई है,
उसी को जग में दिखलाता फिरता
हर शक्ल को तस्वीर में बदलता
पर फिर भी वो अक्स न उभर पाता

तेरे एक दिदार की चाहत दिल में समेटे हुए
बन बैठा भिखारी अब
न जाने कितनो से कहा मैने
कि उसका पता ही भीख में देदो मुझको

एक खत बहुत समय से पास है मेरे
पर हर डाकिए ने भरमाया मुझको
कि वो तो अब लौट कर आएगी
अपने हाथ और लब से खत का जवाब देगी

दिल के हर कोने से आवाज आती है
कि अब जितना भी ढूंढों न मिल पाएगी
वो तो एक छलावा भर थी
जो आई थी जिंदगी में वापस जाने

हर बिछडे आशिक का यही हाल होता है
मौहब्बत का उसे यही सिला मिलता है
बस गम ही पास रह जाता है
बाकी तो सब वह समेटे ले जाती है

_X_


प्रतिमान उनियाल

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