Tuesday, February 9, 2016

कविता: आओ उत्सव मनाए

आओ उत्सव मनाए

आओ उत्सव मनाए
यादों का उत्सव मनाए।
जरूरी नहीं
सिर्फ लम्हों का उत्सव ही खुशी दे
कभी गमों की मिश्री भी जरूरी है।
साथ हो तो
पल वहीं ठहर जाता है
बायोस्कोप तो जाने के बाद शुरू होता है।
उत्सव तो जरिया है
दिल में बसे रहने का
नहीं तो कौन किसे कब तक याद रख पाता है
गम का उत्सव सबसे जरूरी
बांटना किसी और से नहीं पडता
अकेले ही लुत्फ आता है, इस खजाने के साथ

आओ उत्सव मनाए
इन नीरस अकेले पलों कां
देखना कोई जाम ना छलक जाए इन आंखों से
देंगें नहीं एक बूंद भी पूरा पी जाएगें इस हाले को
क्या अमृत क्या विष आज तो यही बस बाकी है।
मदहोशी से कम कुछ गवारा नही
आज तो जी रमाने का दिन आया है

आओ उत्सव मनाए
इस तरह की फिर जरूरत न दिखे
खो जाएं ऐसे कि फिर ढूंढने से ना मिले
हसरतें दिल की पूरी कुछ ऐसे करें
रश्क हो दुनिया को कि वो साथ हमारे क्यों ना थे।

आओ उत्सव मनाए
मेरी दीवानगी का जिसका कोई मुकाम नहीं
आओ उत्सव मनाए
मेरी जहालत का जिसका कोई छोर नहीं 

- प्रतिमान उनियाल

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