Tuesday, February 9, 2016

कहानी: इंतजार

कहानी :
इंतजार

अरे विंदु कितना बजा है, आदत के अनुसार दद्दा थोडी थोडी देर में विंदु से पूछते। क्या करेगें जानकर अभी शाम हो रही है, प्लीज लेटे रहो। 

लेटे रहो, यह शब्द दद्दा पिछले एक साल से सुन रहे है। आखिर कोई इस 20x15 के अस्पताल के कमरे के 8x6 के पलंग पर कोई कब तक लेटा रह सकता है। अस्पताल कितनी भी सुविधाओं से लेस क्यों न हो, कितना भी अच्छा इलाज क्यों न चल रहा हो, अस्पताल तो अस्पताल ही होता है। दिन में एक बार दद्दा विंदु से जरूर गिडगिडाते कि अब तो घर ले चल मुझे। पर घर जाने के लायक ही होते तो यहां क्यों होते। कार्किनोमा, मेलिगनेंसी, कैंसर यह शब्द हथौडे की तरह पडते है जब भी कोई डॉक्टर या कोई आगंतुक कहता।

आज भी याद है, क्या सुबह थीतारीख 2 अक्टूबर, याद इसलिए भी है क्योंकि महात्मा गांधी जो कि दद्दा के पूज्य है उनकी जयंती। सुबह से ही नहा धोकर चहक रहे थे कि अचानक चक्कर आया कुछ धुंधलके की शिकायत की, फिर उल्टी सी लगी जिसमें हल्का खून सा आया। फौरन अंजन, उनका बेटा उनको पास के अस्पताल में ले आया। टेस्ट पर टेस्ट, पता लगा कि फेफडों का कैंसर है, एडवांस स्टेज, एडमिट होना पडेगा।

वो तब का दिन और अब का दिन, एक ही कमरा एक ही दिवारें अस्पताल की। हां कुछ बदलता तो पडोस के पलंग का मरीज। जनरल वार्ड असहनीय था, सिंगल रूम बहुत महंगा था तो फिर डबल शेयरिंग रूम लिया।

वैसे तो हर मरीज अपने में खुद एक कहानी होता है और फिर पडे पडे दद्दा करते भी क्या। जो भी नया मरीज होता उससे और उसके तीमारदारों से बातचीत।

अभी पिछले हफ्ते डैंगू की एक मरीज आई थी राधा। उसके साथ उसकी भाभी नयनतारा जो कि बेलगाम बोलती। एक घंटे में ही बता दिया कि राधा को पिछले साल भी डैंगू हुआ था, उसका पति कहीं बाहर काम करता है, उसका बेटा एक बडे नामचीन स्कूल में पढता है। दद्दा अपने आदत से सलाह देने से बाज नहीं आते। अरे बेटा इसको पपीते के पत्तों का सत्त दो, बकरी का दूध पिलाओ, नारियल पानी पिलाओ देखना शाम तक ही प्लेटलेट बढ जाएगें।

प्लेटलेट, अरे दद्दा कोई कम थोडे ही है, गुरू है गुरू। ठीक है पढाई उतनी जितना लिख पढ सके पर ज्ञान इतना कि जमाने को पीछे छोड दे। सिर्फ लिखने पढने से ही समझ आती या ज्ञान आता तो सारे के सारे एम ए पास आज विलयती गाडियों में बंग्ले में रह रहे होते। कभी किसी ने अंबानी, टाटा, बिरला से पूछा कि भाई कितनी जमात पढे हो। उनको देखो और अपने को देखो। विंदु को इसी बात से गुस्सा आता। ठीक है कि इंजीनियर बनकर एमबीए भी कर लिया, पर दद्दा को यह थोडे ही मालूम कि देश में मंदी आ रही है। बहुतो की नौकरी गई।उसकी भी चली गई। पर कोशिश तो कर रहा है। और दद्दा को देखो कह रहे है कि कि एक रेस्टोरेंट ही खोल देता तो करोडपति हो जाता। रेस्टोरेंट से करोडपति कैसे। दद्दा कहते मुझे क्या मालूम पर लवली भी तो हलवाई था, रसगुल्ले बेचता था पर आज एक बडा कॉलेज खोलकर डिग्री बेच रहा है। बता करोडपति नहीं है क्या वो। कमअक्ल कम से कम एक चाय का ठेला ही खोल दे या पान की दुकान। अगर पूछों कि क्या वो लवली उनकी जान पहचान का है और उन्हीं के यहां वह रसगुल्ले खाने जाते तो फट दद्दा कहते हां हां वो हल्दीराम, बीकानेरवाल, नथ्थू सब मेरे सगे वाले है। अरे मनहूस, उन लोगों ने भी एक दुकान से शुरूवात की थी और आज देख वो कहां और तू, तू तो कहीं नहीं है क्या होगा भी। नौकरी करना चाहता है, बस नौकर ही बने रहना। अपना काम अपना होता है। किसी की चाकरी तो नहीं करनी पडती। आज के लडको को कौन समझाए। अरे ये मुए कंपनी वाले काम निकल जाने पर मख्खी की तरह बाहर निकाल देते है। अरे अपना काम होगा तो कौन निकालेगा। अरे उस काने को देख, पजामा संभालना नहीं आता था। पर आज टेलर मास्टर है। शहर में कमीज पतलून की अपनी दुकान है। 

 दद्दा सबके दद्दा है। पूरा इलाका उनको दद्दा के नाम से जानता है। पीढियों की पीढियां गुजर गई पर दद्दा वहीं के वहीं। 100 से एक साल कम। विंदु कहता है कि दद्दा अगले साल आपकी सेंचुरी बनाएगें तो दद्दा तपाक से कहते अरे सेंचुरी तो कपिल देव ने मारी थी 1983 के वल्‍​र्ड कप में। क्रिकेट और पोलो के दिवाने। क्रिकेट के तो चलो सभी दिवाने है पर पोलो। अरे हुआ यह था कि उनका एक दोस्त लखन सिंह सेना में था। लखन सिंह लंबा चौडा 7 फुटा पोलो खेलने का शौकीन। जब भी उसका मैच होता वो दद्दा को लेकर जाता। खुले मैदान में चार चार घुडसवारों की दो टीम। हॉकी जैसा डंडा उठाए बॉल को दूसरे छोर के गोल में डालना होता। दद्दा ने भी पोलो के कुछ शब्द जैसे चक्कर, हैंडीकैप, स्ट्राईक जैसे शब्द सीख लिए। लखन सिंह को गए भी 30-35 साल हो गए। पर दद्दा हर पोलो मैच टीवी पर ऐसे देखते जैसे हर घोडे पर लखन सिंह ही बैठा हो। मोतिया भरी आंखों से तो हर घुडसवार लखन सिंह ही दिखेगा।

उश यह क्या कर रहे हो भाई....जरा आराम से... दद्दा की आवाज सुनकर विंदु की तन्मयता टूटी। डॉक्टर कोई इंजेक्शन लगा रहा था। हर रोज इंजेक्शन, ब्लड टेस्ट.... शुगर भी है, बीपी भी है, किडनी भी सही काम नहीं कर रही। दिल भी बढा हुआ है। यह बात तो है कि दद्दा का दिल बहुत बडा है। पूरे मोहल्ले में बडे दिलवाले दद्दा के नाम से प्रसिद्ध है। कोई भी समय हो रात या दिन काई भी जानने वाला आए पडोसी रिश्तेदार, बगैर खिलाए तो भेजना ही नहीं। अगर कोई परेशानी पैसौ की या किसी चीज की तो फौरन मदद। पैसे तो दद्दा के पास हमेशा ही रहे है। आज के समय के हिसाब से भी अच्छी खासी पैंशन मिलती है उन्हे। पहले गाय भैंस बकरी पालते थे तो कई बार कोई जानने वाला आता कि उनके मवेशी मर गए मदद चाहिए तो दद्दा अपने ही मवेशियों में से एक उसको पकडा देते। अब कौन समझाए कि भैंस लाख से कम नहीं और बकरी 20‍र्25 हजार से कम नहीं आती। अब तो खैर गांव से शहर में है तो मवेशी कैसे होगें। अभी है गांव में, पर दूसरो के भरोसे। दद्दा अभी भी सोचते कौन उनकी गौरा या काली को सान भूसी खिलाता होगा।

टिक टिक टिक रात का एक बज रहा है। अस्पताल के कमरे की चारदीवारी में क्या एक और क्या पांच, क्या सुबह क्या रात। दद्दा वक्त के हमेशा पाबंद रहे है। सुबह पांच बजे उठना, निवृत होकर दो घंटे पूजा करना। सात बजे नाश्ता जिसमें चार रोटी लहसुन प्याज की चटनी के साथ और गुड। साथ में एक बडा गिलास मलाई से भरा फीका दूध।जब भी विंदु दद्दा के पास गांव आता तो दद्दा उसे यही नाश्ता देते तो विंदु नाक भौं सिकोडकर बोलता की रोटी सूखी है, चटनी से बास आ रही है, दूध में मलाई है। धत्त तेरे की, कैसा बच्चा है रे जो मलाई नहीं खा सकता। चटनी तो अभी पीसी है, हां रोटी कल रात की है पर बासी थोडे ही है। अरे हम तो यही खा कर बडे हुए। वो तो उम्र हो गई इसलिए दो गिलास दूध ही दिन में पचा पाते है नहीं तो पतीला कब साफ कर जाते पता ही नहीं चलता। कुंए से पानी खींचना और वहीं नहाना और धोना। विंदु हमेशा नाक सिकोडता, कहता पता नहीं बाथरूम में क्यों नहीं नहाते।वो तो जब तक बाथरूम में गर्म पानी और गोदरेज का साबुन ना मिले, नहा ही नहीं सकता। दद्दा को देखो दो बाल्टी पानी की उडेली कहा हर हर गंगे और हो गया स्नान। अरे ऐसे कैसे कोई नहा सकता है। दद्दा के खेत के खेत है, सुबह एक चक्कर पूरा लगाते। चक्कर क्या लगाते कि साथ चलने वाले अच्छो अच्छों की सांसे फूल जाती। विंदु उत्साह में तो आ जाता पर आधा किलोमीटर चलने के बाद ही वहीं बैठ जाता। तब दद्दा कहते वापस जा नालायक जो जरा से चल नहीं सकता वो परिवार को क्या चलाएगा।

आज दद्दा चलना तो दूर कमरे से बाहर ही नहीं जा सकते। अस्पताल का कमरा। सांस तो फूलने लगा था। खांसी भी कुछ समय से थी। पर दद्दा ने कभी ध्यान नहीं दिया। सुबह तुलसी का पत्ता मुंह में रखते, अदरक इलायची चबाते। हल्दी वाला दूध पीते और कहते देखो इससे खांसी भी दूर होगी और चुस्ती भी आएगी। खांसी क्या दूर होती। फेफडे ही धोखा दे गए। दद्दा कहते कि तंबाकू या सुपारी खाना तो दिनचर्या का हिस्सा है। हुक्के की गुडगुड से ही तो मन ताजा होता है। हो गया सब कुछ ताजा। सिर्फ यादें। हुक्का तंबाकू सुपारी तो पता नहीं कहा छुपा दी डॉक्टर के कहने पर।

दद्दा हैपी दिवाली, नर्स ने कमरे में घुसते ही कहा। दद्दा ने कहा दिवाली है आज।दिवाली, दद्दा के लिए खास त्यौहार था। उसकी शुरूवात तो नवरात्रों से हो जाती। पूरे घर में चूना मिटटी पुतवाना। गाय भैंसों के लिए नई घंटिया लाना। छत से कुएं तक झालरे लगाना। दशहरे तक हर रात रामलीला देखने जाना। दशहरे के दिन मैदान में मेला लगता। दिन भर वहीं घूमना, धूल मिटटी के गुबार के बीच हर दूकान में जाना और अगर खाने की दूकान हो तो कुछ न कुछ खाना। नहीं तो दुकानदार यह नहीं कहेगा कि लो दद्दा आए हमारे यहां और कुछ नहीं खाया।समोसे, ब्रेड पकोडे, जलेबी, लडडू, इमरती, बालूशाही, चीनी की बर्फी, न जाने क्या क्या। हां जो नापसंद था वो थी नौटंकी। अरे वो भी कोई देखने की चीज है। पैसे भी दो और नचनियों को देखकर वापस आ जाओं अरे इतने में तो 1 किलो जलेबी और 1 किलो रस गुल्ले आ जाएगें। मीठा तो दद्दा की रग रग में बसा था। तभी तो उन्हे शुगर भी हो गया। अभी पिछले महीने ही उनका शुगर लेवल 200 चल रहा था। अस्पताल में रहते हुए अगर 200 तो गांव में कितना रहता होगा। तभी पिछले दो एक सालों से बार बार दिल घबराना और चक्कर बता रहे थे। पर गांव के झोला झाप डॉक्टर बस यह कह देते कि दद्दा घबराओं नहीं गैस हो गई है, लो यह चूरन एक हफ्ता खा लेना आराम आ जाएगा।  अस्पताल के डाक्टर कह रहे थे कि अगर दद्दा को थोडा पहले दिखा देते तो मामला इतना नहीं बढता।

सुबह सात बजे से ही नर्सो का आना जाना शुरू। कभी दद्दा का ब्लड प्रेशर, ब्लड टेस्ट, दवा। फिर सफाई वाले, झाडू पोचा। फिर दद्दा का स्पंज, हफ्ते में एक बार दाढी बनाना। फिर जूस, नाश्ता। ढेर सारी दवा। फिर दुबारा सन्नाटा दोपहर तक। फौज की फौज आनी शुरू। पहले ट्रेनी डाक्टर, बताया जाता कि कैंसर पैशेंट की दिनो दिन हालत कैसी होती है। मानो दद्दा खुद एक डाक्टरी किताब बन गए हो। कभी कभी तो गुस्से में कह देते कि सालों कभी अपने बाप दादा पर यह जुल्म करोगे। फिर जूनियर डॉक्टरों का जमावडा मानों दद्दा चिडियाघर के शेर हो और सब देखने चले आ रहे है। आखिर में सीनियर डॉक्टर रे जिनके वह मरीज है। स्टेथेस्कोप से दिल सुनते और कहते अरे मिस्टर चौहान अब तो आप बहुत ठीक हो रहे है। रोज की यही कहानी। साल के 365 दिन, अब तो नसों‍र् और हैल्परों की शक्ले तक याद हो गई। रोजी, एनी, की सुबह आठ से रात आठ डयूटी, लक्ष्मी, क्यूटी की रात आठ से सुबह आठ तक डयूटी। हर पंद्रह दिन में क्रम बदलता है, सुबह वाले रात को रात वाले सुबह। बस बदलता नहीं है तो अस्पताल का कमरा, कमरे में दो बैड और एक बैड पर दद्दा।

कल तो दद्दा ने ऐसा काम कर दिया कि डॉक्टरों के भी पसीने छूट गए। सुबह एक पेशेंट आया। उसका टखना बिल्कुल मुडा हुआ था। दद्दा ने पूछा तो बताया कि बस से उतर रहा था। पर उतरते हुए एक स्कूटर वाला उसी साईड से आ गया और वह धडाम से स्कूटर के उपर गिर गए। स्कूटर वाल तो बच गया पर उसका पैर स्कूटर के नीचे आ गया। अस्पताल में अभी एक्स रे हुआ है, फ्रेक्चर है, रॉड डलेगी। दद्दा ने कहा अरे भाड में गए डॉक्टर। अरे स्कूटर के नीचे आने से भी टांग टूटती है। मेरी टांग में तो बैल चढ गया था। बता कि स्कूटर भारी या बैल। जब मेरी हडडी उससे नहीं टूटी तो तेरी हडडी अदने से स्कूटर से कैसे टूट सकती है। दिखा अपना पैर। बगैर उसको कोई मौका दिए, लिया पैर हाथों में और मुडे टखने को धाड से सीधा कर दिया। कडाक की आवाज और वह मरीज जो जोर से चीखा, सारे डॉक्टर भागे भागे आए। मरीज पसीने पसीने और बेहोश। स्ट्रेचर में फौरन ले गए। पता लगा कि जो टखना उन्होने सीधा किया वह दूसरा पैर था।  अब दोनो पैरो में फ्रेक्चर है, दोनो में रॉड डलेगी। उस मरीज ने कह दिया कि जान ले लो पर दद्दा के पास मत ले जाना।

आज दद्दा की कीमोथेरेपी है। सुबह से ही दद्दा परेशान है। हर कीमो के बाद उन्हे थकावट और उल्टी आती है। बाल भी सारे झड गए। दर्द भी बहुत होता है जब कीमो की दवा अंदर जाती है। कीमो खत्म होते ही डॉक्टर खुराना बोलते कि बहुत अच्छा रेस्पोंस है, हो सकता है कि अगले हफ्ते आपकी छुटटी कर दे। छुटटी, यह तो दद्दा पिछले एक साल से सुन रहे है। उन्हे भी पता है छुटटी कब मिलेगी। पर वह इंतजार कर रहे है, अपने घर जाने का इंतजार, अपने गांव वापस जाकर दिवाली मनाने का इंतजार। रोटी और गुड के साथ मलाई वाला दूध पीने का इंतजार और अपने विंदु की दुकान खुलने का इंतजार। 

उन्हे एक और चीज का इंतजार है:

अपने मर्ज का इंतजार, जिसका इलाज अभी चल रहा है। उन्हे विश्वास है कि कैंसर जैसी बीमारी कुछ होती ही नहीं है। टीबी होता है, चेचक होता है, माता होती है, हैजा होता है। कैंसर कुछ नहीं होता, सब शहरी छलावा है।

दद्दा आज भी अपने मर्ज का इंतजार कर रहे है।

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- प्रतिमान उनियाल

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