Tuesday, February 9, 2016

कविता: हसरत

हसरत

कल तक बारिश से तरबतर
बेपरवाह हम घूमा करते थे
आज अपने ही दडबे में दुबके
छाता ओढे दो बूंद पानी की हसरत
सीने में पाल रखे है

तल्ख इतने कि दूसरे की खुशी में रंज पालते  है
अपनी मुस्कुराहट न जाने कहां छोड आए है
हंसी का भी पैमाना बना दिया है अबतो
कहीं बेतकल्लुफी हमें बीमार ना कर दे

कश्मकश बरकरार है 
जो हुआ कहीं हम ही तो ना जिम्मेदार थे
बेवजह ही अपने गमों को ज़्ामाने की देन मान बैठे रहे
कुछ तो गलत हुआ ही होगा
आखिर चिंगारी भी तो माचिस मांगती है

खत्म भी करो इस दोज़्ाख भरे हालात को
क्या पता, शायद मुमकिन हो
पर बताएं भी तो कैसे बताएं
फासलों से अब नई उचाईंयां छू ली है

सूकून के दो पल ख्वाब हसीन रह गए
हम तो उन्ही पलों के समुन्दर में कहीं गए
दीदार हो ना हो फरक नहीं पडता
यादों के पन्ना हर ओर चस्पां कर गए 

माहौल ऐसा बन पडा
खुद ढोनी पड रही अपनी शख्सियत
ना तब कुछ कर पाएं 
ना अब कुछ कर पा रहे है 
कल तक बारिश से तरबतर
बेपरवाह हम घूमा करते थे
आज अपने ही दडबे में दुबके
छाता ओढे दो बूंद पानी की हसरत 
सीने में पाल रखे है।

- प्रतिमान उनियाल

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