Friday, April 1, 2016

कविता: अब न लिखूंगा कुछ मैं

कविता: अब न लिखूंगा कुछ मैं

अब न लिखूंगा कुछ मैं, जिसमें तेरा जिक्र हो
क्यों लिखूं मैं, तेरे बारे में
जबकि लिखने को बहुत कुछ है
न कविता, न कहानी, न जिक्र
बस अब बहुत हुआ

जब देखो हर कविता का प्रारंभ भी तुम अंत भी तुम
जैसे कोई और विचार है ही नहीं मन में
क्यों हर शब्द तुमसे ही शुरू होता है
और रूकता भी तुम पर

कितना ही ककहरा सीखा मैनें
पर सब भूल तुम्हारे अक्षर पर ही अटका हूं
अ में तुम क में भी तुम
मंदिर की स्वरांजली में तुम, फिल्म के गीत में भी तुम
सडक बाजार खलिहान कहीं भी जाऊं
कमबख्त तुम ही तुम दिखती हो

पता नहीं इतना क्यों वहम है मुझको
जैसे लगता है तुम अभी यहीं आ जाओगी
इन पंक्तियों को पढकर फौरन यही बैठ जाओगी
और हंस कर बोलोगी कि मैं गई कहां थी

क्या करूं हर वक्त एसा लगता है कि
मुझे तुम्हारा इंतजार है
पर तुम्हे तो कुछ खबर ही नहीं कि मैं हूं कहां
छोडो अब क्यों याद कर रहा हूं तुम्हें

इसलिए यह फैसला मेरा ठीक है कि
अब न लिखूंगा कुछ मैं जिसमें तेरा जिक्र हो
पर फिर मैं क्या लिखूं
लिखने को या तो तुम हो या कुछ नहीं
तो मैं एसा क्या लिखूं
जिसमें मानव, प्रकृति, समाज, 
दुनिया, भगवान, सब हो पर तुम न हो

क्या शरीर का आत्मा के बगैर वजूद है
क्या प्रकृति का हवा के बगैर वजूद है
तो क्या मेरी लेखनी का तुम्हारे बगैर कुछ वजूद है
इसलिए मैं कोशिश करूंगा कि अब वह लिखूं जिसमें
तेरा जिक्र न हो...
या फिर मैं कुछ न लिखूं

_X_
प्रतिमान उनियाल

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