Tuesday, March 1, 2016

कविता: मैने एक खेल देखा

कविता: मैने एक खेल देखा

मैनें एक खेल देखा,
बंदर भालू का नहीं,
पिघलती सडक पर गलती एक जिंदगी का.
कलंदर था वो, पर अपनी मर्जी का नहीं,
मालिक भेजता दूर, हर रोज बहुत दूर,
आगे बंदर, पीछे भालू, बीच में साइकल चलाता जमूरा.
जानवर तो जानवर रहता, 
पर जमूरा कब जानवर बना नहीं जान पाया

याद इतना पडता कि माई बाप छोड गए थे अकेला,
उस अजनबी सडक पर जो सिर्फ दूर जाती थी,
आती थी तो सिर्फ मजबूरी
आई भी थी, वो एक इंसान की शक्ल लेकर,
दो रोटी सामने फैंक, उसको खरीद जो लिया था।
तब से वो और उसका बंदर भालू, रोज दिखाते एक तमाशा
कभी जानवर आग पर कूदता, कभी जमूरा भूख की आग से झुलसता
ताली खूब बजती उसके हर खेल, पर
यह उसको मुक्ति दिलाये, काफी न थी।

सुबह शुरू होती उसी झोंपडी से, जहां रात उसकी खत्म होती,
अब का पेट तो जैसे तैसे भरा, शाम को क्या होगा मालिक को पता
रोटी वह खा के चलता, जो उसने रात के टिक्कडो से बचाई,
उस रोटी का भी एक हिस्सा बंदर खाता तो दूसरा भालू

आज भी अल सुबह वो निकला, 
बच्चों और बडो को दिखाने तमाशा
घंटे भर तक डुगडुगी हिलाई, 
हाथ थके, पांव सुजे पर कोई न आया
थक हार दूसरी सडक पर निकल चला
सुबह से शाम हो गई पर कोई नहीं आया।

एक जगह कुछ बच्चों को देख, 
ठिठका, खोली रस्सी, शुरू किया नाच
बच्चों को देख कुछ बडे भी आए, 
देखते देखते भीड भर आई।
खूब तमाशा देखा जी भर देखा, 
अब पैसों की बारी आई
छंटने लगी भीड, हटने लगे लोग
कुछ ने पैसे दिये, दस बीस या पचास
एक बच्चे ने रूपया दिये पांच, 
कहा कि यह खेल था आईक्रीम से अच्छा.

आखिर खत्म हुआ तमाशा, 
पैसे गिने, निकले केवल 20 रूपया
पूरे दिन की हवाखोरी,
हाथ आया सिर्फ 20 रूपया
उसमें भी 10 मालिक का और 10 उसका,
उसमें रोटी उसको खानी और खिलानी बंदर, भालू को
इसी दस दस से उसकी जिंदगी चलती
आज भी उसका खेल हुआ, कल भी होगा
सच में, मैने उसका खेल देखा
क्या आपने देखा...?

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