Friday, April 22, 2016

कविता - रात की कहानी

रात की कहानी

सन्नाटे भरी रात में आवाजें गूंजती है
बाहर नहीं, दिमाग में
भूली बिसरी सब यादें
जैसे किसी ने रिकार्ड चला दिया हो
और बंद करना भूल गया

हर लफ्ज ताजे हो जातें
कब, कहां, कैसे, कहा फिर सामने आ जाते
बंद आंखों में चली इस शो रील में
कभी मुस्कुरा और कभी आहे भर दिया करते

चांद आज भी वैसा ही है 
जैसा तब था,
और अब तो आंखें बंद कर
दिख भी रहा है तब कैसा था

सरसराती हवा लोरी सुना रही 
दिगभ्रमित सा मन वहीं पहुंच जाता
आमने सामने सिर्फ ताकते रहते
खामोश जुबान, ना जाने क्या क्या कह जाती

नींद की खुमारी खलल पैदा करती 
करवट पलटते ही नए सिरे से,
बातों की झांकी, फिर शुरू हो जाती
कोफ्त होती, पिछली क्या बात छिडी थी

थोडे से अंतराल में, सब कुछ ताजा हो आता
इतना लंबा फासला, चंद मिनटों में पूरा हो जाता
कुछ नींद, कुछ सपने, कुछ खुमारी
ऐसे ही बीत जाती रात हमारी

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प्रतिमान उनियाल

Friday, April 8, 2016

कविता: चले जा रहा था

कविता: चले जा रहा था

चले जा रहा था वो राह में
कहां, यह तो नहीं मालूम
ना किसी को कहा, ना कभी पूछा
कहां से आ रहा था,
बतलाया था एक बार,
किसी से मिलकर
पर किससे
पता नहीं, पर कोई थी
जिसका अब कोई अता पता नहीं

क्या वो अकेला राह में था
नहीं उसकी परछाई साथ थी
लालटेन की तरह, उसको रास्ता दिखाती
पर रौशनी की जगह अंधेरा फूटता
फर्क तो तब पडता जब मंजिल निर्धारित हो

अब कहां है वो
वहीं,जहां पिछली दफे था
गोल गोल घूम कर वापस आ जाता
उसे यह ना मालूम था
पर देखने वालों को तो पता था

क्या कहता है वो
कुछ नहीं
अपलक एक ओर देखते चलता
जैसे कोई बिंब उसकी आंखों में तैरता
उसे ही निहारता
कभी मुस्कुराता कभी उदास होता
पर कहता कुछ नहीं

कौन है वो
शायद असफल,
अपनी जिंदगी से,
नहीं अपनी किस्मत से
वो जीतना चाहता,
किसको,
उसको, पर वो तो कभी थी नहीं उसकी
कभी जताया भी नहीं
मन में ही रखा

अब क्या,
कुछ नहीं, आओ तमाशा देखे
उसका
क्या पता उसमें हमारा ही अक्स हो
दूसरे की पीडा देखनी अच्छी लगती है
देखो, जाते हुए उसको
मजे करों,
और भूल जाओ

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प्रतिमान उनियाल

Friday, April 1, 2016

कविता: अब न लिखूंगा कुछ मैं

कविता: अब न लिखूंगा कुछ मैं

अब न लिखूंगा कुछ मैं, जिसमें तेरा जिक्र हो
क्यों लिखूं मैं, तेरे बारे में
जबकि लिखने को बहुत कुछ है
न कविता, न कहानी, न जिक्र
बस अब बहुत हुआ

जब देखो हर कविता का प्रारंभ भी तुम अंत भी तुम
जैसे कोई और विचार है ही नहीं मन में
क्यों हर शब्द तुमसे ही शुरू होता है
और रूकता भी तुम पर

कितना ही ककहरा सीखा मैनें
पर सब भूल तुम्हारे अक्षर पर ही अटका हूं
अ में तुम क में भी तुम
मंदिर की स्वरांजली में तुम, फिल्म के गीत में भी तुम
सडक बाजार खलिहान कहीं भी जाऊं
कमबख्त तुम ही तुम दिखती हो

पता नहीं इतना क्यों वहम है मुझको
जैसे लगता है तुम अभी यहीं आ जाओगी
इन पंक्तियों को पढकर फौरन यही बैठ जाओगी
और हंस कर बोलोगी कि मैं गई कहां थी

क्या करूं हर वक्त एसा लगता है कि
मुझे तुम्हारा इंतजार है
पर तुम्हे तो कुछ खबर ही नहीं कि मैं हूं कहां
छोडो अब क्यों याद कर रहा हूं तुम्हें

इसलिए यह फैसला मेरा ठीक है कि
अब न लिखूंगा कुछ मैं जिसमें तेरा जिक्र हो
पर फिर मैं क्या लिखूं
लिखने को या तो तुम हो या कुछ नहीं
तो मैं एसा क्या लिखूं
जिसमें मानव, प्रकृति, समाज, 
दुनिया, भगवान, सब हो पर तुम न हो

क्या शरीर का आत्मा के बगैर वजूद है
क्या प्रकृति का हवा के बगैर वजूद है
तो क्या मेरी लेखनी का तुम्हारे बगैर कुछ वजूद है
इसलिए मैं कोशिश करूंगा कि अब वह लिखूं जिसमें
तेरा जिक्र न हो...
या फिर मैं कुछ न लिखूं

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प्रतिमान उनियाल