Friday, February 26, 2016

कविता: गोया, मैं एक तमाशबीन हूं

कविता: गोया, मैं एक तमाशबीन हूं

गोया, मैं एक तमाशबीन हूं
क्योंकि इसका न कोई चेहरा सिर्फ एक अक्स
जो अपनी उपस्थिति दिखाता
वह न देखता, ना सुनता, बस भाव में बह जाता
न कुछ बोल पाता, जुबान जो न है हकीकत बताने को
बस, वही रहा कुछ पल, फिर ऐसे चला गया जैसे कुछ हुआ ही न हो।

नट कौन सा तमाशबीन के पास जाता
तफसील से टोपी आगे रख कातर निगाहों से देखता
उसको भी पता हर तमाशबीन की औकात का
जाता सिर्फ उसके पास जो उसको चंद सिक्के दे सकें

मैं कैसा तमाशबीन, मुझसे ना पूछो
पूछना है तो उस नट से पूछो
जो जिंदगी बन नए नए करतब दिखा रहा
मुझे तो बस अक्स के साथ खड़े रहना है
अपनी मौजूदगी का अहसास दिलाना है
खिलंदड़ा तो वह है, जो बिना रूके बिना थके
मुझे तमाशा दिखा, मेरा समय काट रहा है।

 पिछला तमाशा क्या था, कौन सा खेल था, याद नहीं
क्यों होगा याद जब समझा ही नहीं था उसको
बुत बना तब भी, ऐसा ही खडा था, ऐसा ही खडा अब
बस इतना याद, कुछ कुछ ऐसा ही था वह
कंटीली तारों में नंगे पैर चलना,
बंदर को आग के गोले पर नचाना
पर ऐसा लगा कि कंटीली तार पर तो मैं ही चला
और आग के गोले पर मैं ही नाचा था

हर नए तमाशे के साथ यही दिक्कत है
नया सिर्फ नट होता है, खेल तो वही है
चाहे वह कल का तमाशा या आज का तमाशा
भविष्य मैंने देखा नहीं पर ऐसा ही होगा कि
गोया मैं एक तमाशबीन हूं

_x_
 -  प्रतिमान उनियाल
 

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