Friday, April 8, 2016

कविता: चले जा रहा था

कविता: चले जा रहा था

चले जा रहा था वो राह में
कहां, यह तो नहीं मालूम
ना किसी को कहा, ना कभी पूछा
कहां से आ रहा था,
बतलाया था एक बार,
किसी से मिलकर
पर किससे
पता नहीं, पर कोई थी
जिसका अब कोई अता पता नहीं

क्या वो अकेला राह में था
नहीं उसकी परछाई साथ थी
लालटेन की तरह, उसको रास्ता दिखाती
पर रौशनी की जगह अंधेरा फूटता
फर्क तो तब पडता जब मंजिल निर्धारित हो

अब कहां है वो
वहीं,जहां पिछली दफे था
गोल गोल घूम कर वापस आ जाता
उसे यह ना मालूम था
पर देखने वालों को तो पता था

क्या कहता है वो
कुछ नहीं
अपलक एक ओर देखते चलता
जैसे कोई बिंब उसकी आंखों में तैरता
उसे ही निहारता
कभी मुस्कुराता कभी उदास होता
पर कहता कुछ नहीं

कौन है वो
शायद असफल,
अपनी जिंदगी से,
नहीं अपनी किस्मत से
वो जीतना चाहता,
किसको,
उसको, पर वो तो कभी थी नहीं उसकी
कभी जताया भी नहीं
मन में ही रखा

अब क्या,
कुछ नहीं, आओ तमाशा देखे
उसका
क्या पता उसमें हमारा ही अक्स हो
दूसरे की पीडा देखनी अच्छी लगती है
देखो, जाते हुए उसको
मजे करों,
और भूल जाओ

_X_
प्रतिमान उनियाल

No comments:

Post a Comment