Tuesday, February 9, 2016

कविता: तुम्हारी.... डायरी

तुम्हारी.... डायरी

मैं डायरी हूं
वही डायरी जिसमें तुम लिखते हो
अपनी हर बात मुझमें उतारते हो
तुम्हारी खुशी में मेरा हर पन्ना खुश
तुम्हारे गम में हर पन्ना आज तक आंसुओं में तर
तुम्हारा साथ रहा साल के हर दिन हर पल

पर उसके बाद क्या
नया साल नई डायरी
मुझे क्यों भुला दिया
ठीक मुझमें अब नहीं कोई पन्ना शेष
पर डायरी तो अब भी वहीं हूं
जिसमें कभी तुम अपना सब न्यौछावर कर देते थे
मेरे पन्ने अब पीले हो चले
पर लिखावट तो तुम्हारी वैसी ही स्याह चमक रही

कभी तो मुझे पलट कर देख लो
कई एसी बाते जो तुम्हारी थी अब मुझमें समाई है
कुछ पल जब केवल मैं और तुम थे
पूरी रात जब सिर्फ मैं तुम्हे सुनती अपने में समेटती
अब दूसरी आई तो मुझे भुला दिया
चलों भुला दिया पर उन पलों का क्या उन बातो का क्या
क्या उन्हें भी भुला दिया
कल को फिर कोई नई दिखेगी
तुम्हारी यह वाली भी पुरानी हो चलेगी
क्या उसका भी तुम परित्याग करोगे
क्या उसको भी मेरे आंसुओं से परिचय करवाओगे

समय तुम्हें भी पुराना कर देगा
तब कोई तुम्हार साथ न देगा
पुराने को कोई सहारा नहीं देता
तब तुम मुझे खोजना
अगर तब तक खाक में न मिली तो मुझे संवारकर पढना
तब मैं तुम्हारा साथ दूंगी जबतक तुम चाहो

प्रतिमान उनियाल

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